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श्राद्धविधि प्रकरण.
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खके पाससे याचना करके घर, दुकान, गाम, ग्रास ले उसके द्रव्यसे नवीन मन्दिर बन्धावे तो उसे दोष लगता है परन्तु किसी भद्रिक जीवोंने तैयार बनाया हुवा मन्दिर धर्म आदिकी वृद्धिके लिए साधुको अर्पण किया हो या जीर्ण मन्दिर विनाश होता हो और उसका रक्षण करे तो उसमें साधुको किसी प्रकारकी चारित्रकी हानि नहीं होती, परन्तु अधिक बृद्धि होती है। क्योंकि भगवान की आज्ञाका पालन किया गिना जाता है । इस विषय मैं आगममें भी कहा है कि:
चीराइ चेप्राणं । खित्त हिरन्ने अ गाम गोवाई | लग्गं स्सउ जईणो तिगरणो सोहि कहंतु भवे ॥ १ ॥ भन्नई इवि भासा । जो राया सयं विं मग्गिज्जा ॥ तस्स न होई सोही कोई हरिज्ज एयाई ॥ २ ॥ तथ्य करन्तु उवे साजा भणिग्राम तिगरण विसोहि । सायन होई भत्ती अवस्स तम्हा निवारिज्जा ॥ ३ ॥ सव्वथामेण तेहि संदेय होई लगि अन्वन्तु ॥
सचरित चरिचीणय सव्वेसिं होई कज्जन्तु ॥ ४॥
मन्दिरके कार्यके लिए देवद्रव्य की वृद्धि करते हुए क्षेत्र, सुवर्ण, चांदी, गांव गाय, बैल, वगैरह मन्दिरके निमित्त उपजानेवाले साधुको त्रिकर्ण योगकी शुद्धि कैसे हो सकती है ? ऐसा प्रश्न करनेसे आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि यदि ऊपर लिखे हुए कारण स्वयं करे याने देवद्रव्य की वृद्धिके लिये स्वयं याचना करे तो उसके चरित्र की शुद्धि न की जाय, परन्तु उस देवद्रव्य की (क्षेत्र, ग्राम, ग्रास, वगैरहकी ) यदि कोई चोरी करे, उसे खा जाय, या दबा लेता हो तो उसकी उपेक्षा करनेसे साधुको त्रिकर्ण की विशुद्धि नहीं कही जासकती । यदि शक्ति होनेपर भी उसे निवारण न करे तो अभक्ति गिनी जाती है, इसलिए यदि कोई देवद्रव्यका विनाश करता हो तो साधु उसे अवश्य अटकावे । न अटकावे तो उसे दोष लगता है । देवद्रव्य भक्षण करनेवाले के पाससे यदि द्रव्य पीछे लेनेके कार्यमें कदापि सर्वसंघका काम पड़े तो साधु श्रावक भी उस कार्यमें लग कर उसे पूरा करना । परन्तु उपेक्षा न करना । दूसरे ग्रन्यों में भी कहा है कि:
भख्खे जो उवेख्खे | जिणदव्वं तु सावधो ॥
पन्नाहिणो भवे जी । लिप्पए पावकम्मुखा ॥ १ ॥
दु
देवद्रव्यका भक्षण करे या भक्षण करने वालेकी उपेक्षा करे या प्रज्ञा हीनतासे देवद्रव्य का उपयोग करे तथापि पापकर्म से लेपित होता है। प्रज्ञा हीनता याने किसीको देवद्रव्य अंग उधार दे, कम मूल्यवाले गहने रखकर अधिक देवद्रव्य दे, इस मनुष्यके पाससे अमुक कारणसे देवद्रव्य पीछे वसूल करा सकूंगा ऐसा विचार किये बिना ही दे । इन कारणोंसे अन्तमें देवद्रव्यका विनाश हो इसे प्रज्ञा हीनता कहते हैं । अर्थात् विना विचार किये किसीको देवद्रव्य देना उसे प्रज्ञाहीनता कहते हैं ।
प्रयाणं जो भंजई पडिवन्न धणं न देइ देवस्य ।
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