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श्राद्धविधि प्रकरण थे वे सब ले लिए, इससे सौतों परके द्वेष भावसे अत्यन्त दुवा॑नमें मृत्यु पाकर सौतोंके मन्दिर, प्रतिमा, महोत्सव, गीतादिक के मत्सर करनेसे अपने बनवाये हुये मन्दिरके दरवाजे के सामने कुत्तीपने उत्पन्न हुई । अब वह पूर्वके अभ्याससे मन्दिरके दरवाजेके आगे बैठी रहती है। उसे मन्दिरके नोकर मारते पीटते हैं तथापि वह वहांसे अन्यत्र नहीं जाती। फिर फिराकर वहीं आवैठती है। इसप्रकार कितना एक काल बीतने पर वहीं पर कोई केवलज्ञानी पधारे, उन्हें उन रानियोंने मिलकर पूछा कि महाराज ! कुन्तला महारानो मरकर कहां उत्पन्न हुई है ? तब केवली महाराजने यथावस्थित स्वरूप कह सुनाया। वह वृत्तान्त सुनकर सर्व रानियां परम वैराग्य पाकर उस कुत्तीको प्रति दिन खानेको देती हैं और परम स्नेहसे कहने लगी कि "हे महाभाग्या! तू पूर्व भवमें हमारी धर्मदात्री महा धर्मात्मा थी। हा! हा! तूने व्यर्थ ही हमारी धर्म करणी पर द्वष किया कि जिससे तू यहां पर कुत्ती उत्पन्न हुई है। यह सुनकर चैत्यादिक देखनेसे उसे जातिस्मरण शान हुवा; इससे वह कुत्ती वैराग्य पाकर सिद्धादिकके समक्ष स्वयं अपने द्वेष भावजन्य कर्मको क्षमाकर आलोचित कर अनशन करके अन्तमें शुभध्यानसे मृत्यु पा वैमानिक देवी हुई । इसलिये धर्म पर द्वेष न करना चाहिये।
"भावस्तवका अधिकार" यहाँ पूजाके अधिकारमें भावपूजा-जिनाज्ञा पालन करना यह भावस्तवमें गिना जाता है । जिनाज्ञा दो प्रकार की है। (१) स्वीकार रूप, (२) परिहार रूप । स्वीकार रूप याने शुभकर्णिका आसेवन करना और परिहार 'रूप याने निषेधका त्याग करना। स्वीकार पक्षकी अपेक्षा निषिद्ध पक्ष विशेष लाभकारी है। क्योंकि जो २ तीर्थंकरों द्वारा निषेध किये हुए कारण है उन्हें आचरण करते बहुतसे सुकृतका आचरण करने पर भी विशेष लाभकारी नहीं होता। जैसे कि, व्याधि दूर करनेके उपाय स्वीकार और परिहार ये दो प्रकारके हैं याने कितने एक औषधादिके स्वीकारसे और कितने एक कुपथ्यके परिहार त्यागसे रोग नष्ट होता है। उसमें भी यदि औषध करते हुए भी कुपथ्यका त्याग न किया जाय तो रोग दूर नहीं होता; वैसे ही चाहे जितनी शुभ करनी करे परन्तु जबतक त्यागने योग्य करणीको न त्यागे तबतक जैसा चाहिये वैसा लाभकारक फल नहीं मिलता।
औषधेन बिना व्याधिः। पथ्यादेव निर्वतते॥
न तु पथ्याविहीनस्य । औषधानां शतैरपि ॥१॥ विना औषध भी मात्र कुपथ्यका त्याग करनेसे व्याधि दूर हो सकता है। परन्तु पथ्यका त्याग किये विना सैकड़ों औषधियोंका सेवन करने पर भी रोगकी शांति नहीं होती। इसी तरह चाहे जितनी भक्ति करे परन्तु कुशील आसातना आदि न तजे तो विशेष लाभ नहीं मिल सकता। निषेधका त्याग करे तो भी लाभ मिल सकता है याने भक्ति न करता हो, परन्तु कुशीलत्व, आसातना, वगैरह सेवन न करता हो तथापि लाभ. कारी है और यदि सेवा भक्ति करे और आसातना, कुशीलत्व आदिका भी त्याग करे तो महा लाभकारी समझना । इसलिए श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी कहा है कि,:
वीतराग सपर्यात। स्तवाज्ञा पालनं पर।