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श्राद्ध-विधि प्रकरण
ग्रंथ मंगलाचरण (मूलगाथा )
सिरि वीरजिणं पणमिअ, सुआओ साहेमि किमविसढविहि । रायगिहे जगगुरुणा जहभणियं अभयपुट्टेणं ॥ १ ॥
केवलज्ञान अशोकादि अष्ट प्रातिहार्य पैंतीस वचनातिशय रूप लक्ष्मी से संपन्न चरम तीर्थंकर श्री वीर पर
को उत्कृष्ट भावपूर्वक मन वचन कायासे नमस्कार करके सिद्धांतों और गुरु संप्रदाय द्वारा बारंबार सुना हुवा श्रावकका विधि कि जो अभयकुमार के पूछने पर राजगृह नगर में समवश्रित श्री महावीर स्वामी ने स्वयं अपने मुखारविन्द से प्रकाशित किया था वैसाही मैं भी किंचित् संक्षेप से कथन करता हूं ।
इस गाथामें जो वीरपद ग्रहण किया है सो कर्मरूप शत्रुओं का नाश करने से सार्थक ही है। कहा है किविदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते ।
तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥
२
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तप से कर्मों को दूर करते हैं, तप द्वारा शोभते हैं और तपसम्बन्धी वीर्यपराक्रम से संयुक्त हैं इसलिये वीर कहलाते हैं ।
रागादि शत्रुओं को जीतने से जिनपद भी सार्थक ही है। तथा दानवीर, युद्धवीर और धर्मवीर एवं तीनों प्रकारका वीरत्व भी तीर्थंकर देव में शोभता ही है। शास्त्र में कहा है कि
हत्वा हाटककोटिभिर्जंगदसद्दारिद्यूमुद्राकषम्, हत्वा गर्भशयानपिस्फुरदरीन् मोहादिवंशोद्भवान् । तत्प्रादुस्तपस्पृहेण मनसा कैवल्यहेतुं तप
स्वा वीरयशोदधद्विजयतां वीरत्रिलोक गुरुः ॥ १ ॥
इस असार संसार के दारिथ, चिन्ह को करोड़ों सौनेयों के दान द्वारा दूर कर के, मोहादि वंश में उत्पन्न हुए शत्रुओं को समूल विनाशा कर तथा निस्पृह हो मोक्षहेतु तप को तप कर एवं तीन प्रकार से वीर यश को धारण करने वाले त्रलोक्य के गुरु श्री महावीर स्वामी सर्वोत्कर्ष - सर्वोपरी विजयवन्त रहो ।
“वीरजिन” इस पद से ही वे चार मूल अतिशय ( अपायापगम - जिससे कष्ट दूर रहे, ज्ञानातिशय- उत्कृष्ट ज्ञानवान्, पूजातिशय-सब के पूजने लायक, वचनातिशय-उत्तमवाणी वाले ) से युक्त ही हैं । इस ग्रन्थ में जिन जिन द्वारोंका वर्णन किया जायगा उनका नाम बतलाते हैं:-- दिणरत्तिपव्वचउमासग वच्छरजम्मकिच्चिदाराई । सढाणणुग्गहथ्था सढविहिए भणिजंति ॥ २ ॥
११ दिन कृत्य, २ रात्रि कृत्य, ३ पर्व कृत्य, ४ चातुर्मासिक कृत्य, ५ वष कृत्य, ६ जन्मकृत्य । ये छह द्वार श्रावकों के उपकारार्थ इस श्रावकविधि नामक ग्रन्थमें वर्णन किये जावेंगे ॥