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________________ ११८ श्राद्धविधि प्रकरण इत्तो चेव जिणाणं । पुणरवि आरोवणकुण वि जहा ॥ वथ्या हरणाईण । जुगलिम कुंडलिन माईण ॥३॥ कहमनह एगाए। कासाइए जिणंद पडिमाण ॥ अठ्ठसयं लुहंता । विजयाई वनीया सपए ॥४॥ जैसे एक दिन चढाये हुए वस्त्र, आभूषण्णदि कुंडल जोडी एवं फंठा वगैरह दूसरे दिन भी पुनः आरोपण किये जाते हैं वैसे ही आंगीकी रचना तथा पुष्पादिक भी एक दफां चढाये हों तो उन पर फिरसे दूसरे चढाने हों तो भी चढाये जा सकते हैं; और वे चढाने पर भी पूर्वमें चढ़ाये हुए पुष्पादिक निर्माल्य नहीं गिने जाते । यदि ऐसा न हो तो एक ही गंध कासायिक (रेशमी वस्त्र) से एक सौ आठ जिनेश्वरदेवकी प्रतिमाओं को अंगलुंछन करने वाला विजयादिक देवता जंबूद्वीप पन्नत्तिमें क्यों वर्णित किया हो ? निर्माल्यका लक्षण" जो वस्तु एक दफा चढाने पर शोभा रहित होजाय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, बदला हुवा देख पडता हो, देखने वाले भव्य जीवोंको आनन्द दायक न हो सकता हो उसे निर्माल्य समझना । ऐसा संघाचारकी बृत्तिमें बहुश्रुत पूर्वाचार्योंने कहा है । तथा प्रद्युम्न सरि महाराज रचित विचार सारमें यहां तक कहा है कि, चेइअदव्वं दुविहं । पूधा निम्मल्ल मेमो इथ्थ । आयाणाइ दव्वं । पूयारिथ्थ मुणोयव्वं ॥१॥ अख्खय फलवलि वच्छाई । संतिजं पुणो दविण वणजायं । तं निम्मलं बुच्चइ । जिणणिह कम्ममि उवभोगो ॥२॥ देव द्रव्यके दो भेद होते हैं। १ पूजाके लिए संकल्पित, २ निर्माल्य बनाहुवा । १ जिन पूजा करनेके लिए केशर चंदन, पुष्प, वगैरह तयार किया हुवा द्रव्य पूजाके लिये संकल्पित कहलाता है याने वह पूजाके लिए कल्पित किये बाद फिर दूसरे उपयोगमें नहीं लिया जा सकता, याने देवकी पूजामें ही उपयोगी है । २ अक्षत, फल, नैवेद्य, वस्त्रादिक जो एक दफा पूजाके उपयोगमें आचुका है, ऐसे द्रव्यका समुदाय पूजा किये बाद निर्माल्य गिना जाता है। यहां पर प्रभु पर चढाये हुये चावल, वादाम भी निर्माल्य होते हैं ऐसा कहा, परन्तु अन्य किसी भी आगममें या प्रकरणमें अथवा चरित्रोंमें इस प्रकारका आशय नहीं बतलाया गया है, एवं वृद्ध पुरुषोंका संप्रदाय भी वैसा किसीके गच्छमें मालूम नहीं होता। जिस किसी गांवमें आयका उपाय न हो वहां पर अक्षत वादाम, फलादिसे उत्पन्न हुए द्रव्यसे प्रतिमाकी पूजा करानेका भी संभव है। यदि अक्षतादिकको भी निर्माल्यता सिद्ध होती हो तो उससे उत्पन्न हुये द्रव्यसे जिनपूजा संभवित नहीं होती। इसलिए हम पहले लिख आये हैं कि, जो उपयोगमें लाने लायक न रहा हो वही निर्माल्य है। बस यही उक्ति सत्य ठहरती है। क्योंकि शास्त्रमें लिखा ही है कि,-"भोगविण दव्वं निम्मल्लं बिति गीयत्था"
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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