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________________ श्राद्धविधि प्रकरण "राजाके पंचाभिगम" अवहदु रायककुहाई। पंच नरराय ककुहाई॥ खग्गं छत्तो वाहण। मउड तह चामए ओम ॥१॥ राजा जब मंदिर में प्रवेश करे तब राज्यके पांच चिन्ह-१ खड्गादि सर्वशस्त्र, २ छत्र, ३ बाहन, ४ मुकुट और ५ दो चामर छोड़कर (बाहर रख कर ) अन्दर जाय। यहां पर यह समझना चाहिये कि, जब श्रावक मंदिर के दरवाजे पर जाय तब मन, वचन, कायासे अपने घर संबन्धी व्यापार (चितवन) छोड़ देता है, और यह भी समझ लेना चाहिये कि जिनमंदिर द्वारमें प्रवेश करते हो या ऊपर चढ़ते ही प्रथम तीन दफा निःसिही शब्द उच्चारण करना, ऐसा विधि है। यह तीन दफा उच्चारण किया हुआ नि:सिहो शब्द अर्थकी दृष्टि से एक ही गिना जाता है क्योंकि, इस प्रथम निःसिहीसे गृहस्थका सिर्फ घरका हो व्यापार त्यागा जाता है, इसलिये तीन दफा बोला हुवा भी यह निःसिही शब्द एक ही गिना जाता है। इसके बाद मूल नायकको प्रणाम कर के जैसे चतुर पुरुष, हर एक शुभकार्य को करते हुये दाहिने हाथ तरफ रखकर करते हैं वैसे प्रभुको अपने दाहिने अंग रख कर ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी, प्राप्तिके लिये प्रभु को तोन प्रदक्षिणा दे। ऐसा शास्त्रमें भी कहा है कि,: तत्तो नमो जिणाणंति। भणिपद्धोणयं पणामं च ॥ काऊ पंचागं वा। भत्तिभर निभ्भर पणेणं ॥ १॥ पूअग पाणिपरिवार । परिगो मुहिर महिर घोसेण ॥ पढमाणो जिणगुणगण । निवद्ध मंगल भुत्ताई ॥२॥ करधरिअ जोगमुद्दो । परा परा पाणि रख्खणाउत्तो॥ दिजा पयाहिणतिगं एगग्गमणो जिणगुणेसु ॥३॥ गिहचेइएसु न घडइ। इभरेसुबिजइवि कारणबसेण ॥ तहवि न मुचइ मइमं सयाबि तक्करण परिणामं ॥४॥ तदनन्तर 'नमोजिणाणं' ऐसा पद कहकर अर्ध अवनत (जरा नमकर ) प्रणाम कर के अथवा भक्तिके समुदायसे अत्यंत उल्हसित मन वाला होकर पंचांग प्रणाम करके पूजाके उपकर्ण जो केशरचंदनादिक हों वे सब साथ ले कर गंभीर मधुर ध्वनिसे जिनेश्वर भगवंत के गुण समुदाय से संकलित मंगल, स्तुति स्तोत्र, बोलता हुवा दो हाथ जोड़ कर पद पदमें जीव रक्षाका उपयोग रखता हुवा जिनेश्वरके गुणोंमें एकाग्र मन वाला हो तीन प्रदक्षिणा दे, यद्यपि प्रदक्षिणा देना यह अपने घर मन्दिरमें भमति न होनेके कारण नहीं बन सकता अथवा बड़े मन्दिर में भी किसी कार्यकी उतावल से प्रदक्षिणा न कर सके तथापि बुद्धिमान पुरुष सदैव वैसा विधि करनेके उपयोग से शून्य नहीं होता। “प्रदक्षिणा देनेकी रीति" प्रदक्षिणा देते समवशरणके समान चाररूपमें श्रीवीतरागका ध्यान करना। गभारे के पीछे एवं दाहिने बांये तरफ तीन दिशामें रहे हुए तीन जिनबिम्बोंको वन्दन करे। इसी कारण सब मन्दिरोंके मूल
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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