________________
श्राद्धविधि प्रकरण
"प्रभातकी संध्याका लक्षण" नक्षत्रेषु समग्रेषु भ्रष्टतेजस्सु भास्वतः ॥
यावदधोंदयस्तावत्साप्तःसंध्याभिधीयते ॥३॥ · सर्व नक्षत्र तेज रहित बन जाय और जबतक सूर्यका अर्द्ध उदय हो तब तक प्रभातकी संध्याका समय गिना जाता है।
"सायंकालकी संध्याका लक्षण" प्रोस्तयिते यावन्नक्षत्राणि नभस्तले ॥
द्वित्रीणि नैव विक्ष्यन्ते । तावत्सायं विदुर्बुधाः ॥ ४॥ जिस समय अर्ध सूर्य अस्त हुवा हो और आकाशतलमें जबतक दो तीन नक्षत्र न दीख पड़े हों तबतक सायंकाल ( संध्या ) गिना जाता है।
"मलमूत्र करनेके स्थान" भस्मगोपयगोस्थानवल्मीकसकृदादिपव ॥ उत्तमद्र मसप्ताचिमार्गनीसश्रयादिसत ॥५॥ स्थानं चिलादिविवकृतं । वथा कुलकमात॥
स्त्रीपुज्यगोचर वज्यं । वेगाभावेन्यथा न तु ॥६॥ राखका या गोबरका पुंज पडा हो उसमें, गायके बैठने बांधनेकी जगह, बल्मिक पर, जहांपर बहुतसे मनुष्य मल मूत्र करते हों वहांपर, आंब, गुलाब, आदिकी जडमें, अग्निमें, सर्पके सामने मार्गमें, पानीके स्थानमें, श्मशान आदि भयंकर स्थानमें, नदी किनारे नदीमें, स्त्री तथा अपने पूज्यके देखते हुए यदि मल मूत्रकी अत्यन्त पीड़ा न हुई हो तो पूर्वोक्त स्थानोंको छोड़ कर मल मूत्र करना। परन्तु यदि अत्यन्त पीड़ा और हाजत हुई हो तो पूर्वोक्त स्थानोंमें भी करना, किन्तु मल मूत्रको रोकना नहीं । ओघनियुक्ति आदि आयममें भी साधुको आश्रित करके ऐसा कहा है कि,
अमावाय ससंलोए। परस्साणुवधाइए॥ समे अभझुसिरेवावि । अचिरकाल कयंमिश्र ॥१॥ विच्छिन्ने दुरसोगाढे। नासन्ने विलवजिए॥
तस्स पाणवी रहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥२॥ जहांपर दूसरा कोई न आसके एवं अन्य कोई न देख सके ऐसे स्थानमें, जहां बैठनेसे निन्दा न हो या किसी के साथ लड़ाई न हो ऐसे स्थानमें, एक सरखी भूमिमें, घास आदिसे ढकी हुई भूमि वर्जित स्थानमें, क्योंकि ऐसी भूमिमें बैठते हुये घास वगैरहमें यदि कदाचित् विच्छू, सर्प, कीड़ा वगैरह हो तो व्याघातका