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प्राता था और तीसरा घटसिंह नामका भाई था । ये दोनों भाई भी बहुत श्रेष्ठ थे और बड़े भाई के लिये दोनों भुजाओंरूप थे। एक समय देवराज शेठने अपने भाइयोंसे. कहा, " हे बन्धुओं ! यह नाशवान लक्ष्मी किसीके घरमें स्थिर नहीं रही है। अनेक चक्रवर्ती और सार्वभौम राजा लोग इस धनसे प्रधान होगये हैं, उसी प्रकार वासुदेव भी द्रव्यकी ऋद्धिसिद्धिसे प्रसिद्ध हैं, तथा श्री विक्रम नल, मुंज, और भोज राजा पृथ्वी प्रख्यात हो गये हैं, ऐसे पुरुषपुंगवोंके गृहमें भी लक्ष्मीने स्थिरता प्राप्त नहीं की, अतः प्रोश पुरुष लक्ष्मीका दान कर कृतार्थ होते हैं । अतएव यदि तुम दोनों मनमें विचार कर सम्पात्त दो तो में इस लक्ष्मीद्वारा सूरिपदको प्रतिष्ठा करूं।" दोनों भाइयोंने बहुत प्रसन्नतापूर्वक सम्पत्ति उसके चरणोंमें भेट की, तो देवराज शेठ हर्षसे गद्गद् होकर.सोमसुन्दर सूरि महाराजके निकट आया और गुरु महाराजको वंदन कीया ( आगेका भाग विशेष प्रस्तुत है इसलिये विस्तारपूर्वक सम्पूर्ण दिया जाता है।) व्यजिशपद्विशशिरोमणिश्च गच्छाधिपं स्वच्छमतिप्रसारम् । श्रीसूरिदीव्यत्पदभूमिवित्तव्ययस्य निर्मापणतः प्रसीद ॥ ३१ ॥
अर्थ-चतुर पुरुषों में श्रेष्ठ उस शेठने स्वच्छ बुद्धिवाले सूरिमहाराजसे विनति की कि " आप दिव्य सूरिपदके स्थानमें प्रसन्न होकर मेरे पसोंका व्यय करावें । " अर्थात् मेरे खर्चसे किसी मुनिके सूरिपदकी प्रतिष्ठा कराइये। ततो गुरुः सौवविनेयवृन्दे, दौ सौन्नत्यगुरुः स्वदृष्टिम् । श्रीवायकेन्द्रे मुनिसुन्दराद्वे, विशेषतो योग्यतया तया च ॥ ३२ ॥ - अर्थ-इनके पश्चात् उन्नतिमें गुरु वे गुरुमहाराज अपने शिष्य समू. हकी ओर दृष्टि डाली और विशेषतया वाचकेन्द्र श्रीमुनिसुन्दर ऊपर विशेष योग्यताके कारण उनकी दृष्टि पड़ी। जल्पत्यनल्पं सविकल्पजालं, सदाप्यनुस्यूतमतिप्रभूतम् । श्राक्संस्कृतं प्रोन्मदवादिधृन्द, ननाश यस्मिन् किलकाकनाशम् ॥३३॥ __ अर्थ-जब मुनिसुन्दर उपाध्याय अति बुद्धिसे व्याप्त तर्कके जालको वचनमार्गद्वारा प्रवाहित करते हैं तब संस्कारवाले उन्मत्त वादियोका समूह कौनोंके समान शिघ्रतया कूच कर जाता है। अर्थात् वे वादविवादमें वादियोंको शिघ्न ही वाणीद्वारा परास्त कर देते हैं ।