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________________ अधिकार ] साम्यसर्वस्व [ ६५१ तो यह सर्व इच्छित सुख (स्थूल और मानसिक ) देती है । ये सब हैं यह बात तो सच है किन्तु यह बतलाकर दिखादे की सब तेरेमें हैं। • इनको बतलानेके लिये अविद्याका त्याग कर । अमानसे अंधेके समान दशा होती है। अज्ञ जीवन लगभग व्यर्थसा ही होता है, इसलिये अविद्याका त्याग करके तेरे योग्य कर्तव्यों में दत्तचित्त होजा। शास्त्रकारका कहना है कि "प्रज्ञानं खलु भो कष्ट, क्रोधादिभ्योऽपि तीव्रपापेभ्यः ॥" क्रोधादि तीव्र पापोंसे भी अज्ञान महाकष्ट पहुंचानेवाला है । जबतक अज्ञानका नाश नहीं होगा तबतक साध्य दृष्टिगोचर नहीं होगा। इसलिये हे भाई! तू जाग्रत हो, खडा हो, पुरुषार्थ प्रगट कर, वीर्य प्रगट कर । सुखदुःखके मूल-समता ममता. निःसङ्गतामेहि सदा तदात्म नर्थेष्वशेषेष्वपि साम्यभावात् । भवेहि विद्वन् ! ममतैव मूलं, शुचां सुखानां समतैव चेति ॥ ३ ॥ " हे प्रात्मन ! सर्व पदार्थोंपर सदैव समताभाव रख कर निःसंगपन प्राप्त कर । हे विद्वन् ! तू जानलेना कि दुःखका मूल ममता ही है और सुखका मूल समता ही है।" . उपजाति. विवेचन-हम पढ़ चुके हैं कि सुखदुःख, मोक्ष या नरक ये आत्मा ही है, क्यों कि इनका उपादान कारण भात्मा ही है । इस आत्मामें जो समभाव रक्खा जाय तो यह अपना प्रकल स्वरूप प्रगट करके इच्छित मर्थ प्राप्त कर सकती है । इस समताको प्राप्त करने के साधन तथा मार्ग इस ग्रन्थमें बतलाये गये
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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