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अधिकार] शुभवृत्तिशिक्षोपदेशः [६३३ पोषण करने के लिये आहार नहीं होता, परन्तु धर्मकार्यमें शरीर उपयोगी हो सके इस शुद्ध हेतुसे शरीरको भाड़ेके रूपमें माहार देनेका उनका आशय होता है.
उपदेश-विहार. ददस्व धर्मार्थितयैव धान् ,
सदोपदेशान् स्वपरादि साम्यान्। जगद्धितैषी नवभिश्च कल्पै
मे कुले वा विहराप्रमत ! ॥५॥ " हे मुनि ! तू धर्म प्राप्त करनेके हेतुसे ऐसे धर्मानुसार उपदेश कर कि जो स्व और परके सम्बन्धमें समानपन प्रतिपादन करनेवाले हों। तू संसारकी भलाईकी इच्छा रख कर, प्रमाद रहित होकर, ग्राम अथवा कुलमें नवकल्पी 'विहार कर।"
उपजाति. विवेचन-(१) हे साधु ! उपदेश करना यह तेरा धर्म है । तेरे उपदेशमें तीन गुण होने चाहिये । (अ) उपदेश निष्पाप होना चाहिये अर्थात् उसमें सावध आचरणकी आज्ञा या सूचना नहीं होनी चाहिये । ( ब ) वह उपदेश धर्मप्राप्तिके एकान्त हेतुसे ही किया हुआ होना चाहिये; और उस उपदेशको करते समय किसी भी प्रकारका स्वार्थ न होना चाहिये; केवल पारमार्थिक हेतुसे ही वह उपदेश करना चाहिये । ( क ) वह उपदेश अपनी तथा दूसरोंकी आत्मिक और पौद्गलिक वस्तुओंपर समभाव उत्पन्न करनेवाला होना चाहिये । यह उद्धतापूर्ण या स्वोत्कर्ष
१ 'साम्यात् ' ऐसा पाठ है । अपने पक्ष और दूसरों के पक्षकी ओर रागद्वेषकी वृत्तिको छोड़ कर उपदेश करना ।