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अधिकार ] शुभवृत्तिशिक्षोपदेशः [६२७ करना और (६) पञ्चख्खाण-स्थूल पदार्थोंका भोग कम करना, तदन मन्द करना और भरसक त्यागभाव रखना । ।
ये छ आवश्यक सर्व जैनियों के लिये अवश्य करने के हैं, शास्त्रमणीत हैं, परमात्माके मुखसे निर्दिष्ट हुए हुए हैं और स्वतः निर्दोष हैं । अपितु ये स्वयं निर्दोष ही नहीं है किन्तु भवरोग मिटाने निमित्त औषधरूप है। इनके औषधपनकी शकि सर्वज्ञप्र. णीत है और अनुभवगम्य है । औषधि बतानेवाले वैद्य चाहे जितना विद्वान् क्यों न हो परन्तु व्याधिका नाश तो उनकी बताई हुई औषधीको खानेसे ही होता है, केवल मात्र नाम जाननेसे कार्य नहीं हो सकता है । इसीप्रकार आवश्यकरूप औषधी खानेसे ही भवरोग मिट सकता है। अपितु खाने पर भी यदि वह औषधी शुद्ध न हो तो व्याधि दूर नहीं हो सकती है इसके लिये भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । अनेक माणियोंपर उपयोग करनेके पश्चात् और अतीन्द्रिय चक्षुसे उसका लाभ प्रत्यक्ष दृष्टिमें आनेके पश्चात् ही वह बतलाई गई है
और इसके बतानेवाले सर्व प्रकारका विचार कर सके ऐसी स्थितिमें थे, इसलिये यह औषधी, फूट निकलेगी या व्याधिको बढ़ायेगी इसकी भी चिन्ता न करनी चाहिये ।
आवश्यक क्रियाकी बहुत आवश्यकता है। इससे आत्मा बहुत निर्मल रहता है, पुराने पाप अंशे अंशे छोड़ता जाता है, नवीन ग्रहण नहीं करता है इससे वह धर्म सन्मुख रहता है
और उसकी आन्तरवृत्ति जागृत रहती है। आवश्यक क्रिया सम्बन्धी दोषोंको जाननेकी आवश्यकता है। सामायिकके ३२ दोष, कायोत्सर्गके १९ दोष आदि क्रियामार्गके ग्रन्थोंसे पढ़ें
और उनके त्याग करनेका प्रयास करें। दोषरहित आवश्यक महाफल देते हैं, और यह स्थिति अभ्याससे प्राप्य है । जबतक