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________________ ६२० ] अध्यात्मकल्पद्रुम [चतुर्दश नि:संगता और संवर-उपसंहार. तदेवमात्मा कृतसंवरः स्यात्, निःसङ्गताभाक् सततं सुखेन । निःसङ्गभावादथ संवरस्तद्द, द्वयं शिवार्थी युगपद्भजेत ॥ २२ ॥ " ऊपर कहे अनुसार जिसने संवर करलिया हो उसकी आत्मा शिघ्र ही बिना किसी प्रयासके ही नि:संगतीका भाजन हो जाती है, अपितु निःसंगताभावसे संवर होता है। अतएव मोचके अभिलाषी जीवको इन दोनोंको साथही साथ भजना चाहिये ।" उपजाति. विवेचन-मिथ्यात्वका त्याग किया हो, अविरति दूर की हो, कषायको शक्तिहीन करदिया हो और योगका रूंधन किया हो तो फिर ममत्वभाव स्वाभाविकतया ही कम हो जाता है । ममत्वके घटनेसे संसारके साथ जो दृढ वासना होती है वह भी कम होती है और वासनाके कम होनेसे विषयके साथ एकाकार वृत्ति होनेसे रुकती है, अन्तमें वासना भी नष्ट हो जाती है और ममता भी नष्ट हो जाती है, उसके जानेसे मोह गया और मोह जानेसे भवभ्रमण गया और भवभ्रमणके जानेसे मानो अव्या. बाध मोक्षसुख मिला। कितने ही जीवोंको प्रथम मोहत्याग होता है, वैराग्य निमित्त के प्राप्त होनेसे स्त्रीपुत्रादि परका प्रेम कम होता है, जिसके पश्चात् ऐसी जागृति होती है, काया, वचन और मनके योगोंकी प्रशस्त प्रवृत्ति होती है और कषाय शक्तिहीन होते हैं । इसप्रकार १ पुत्र, स्त्री, धन, आदि पर ममत्वरहितपन ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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