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अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधः
[६०७ कर बैठ रहे जिससे भी क्या ? इससे कोई महालाभ नहीं होता है, कदाच थोड़ा बहुत लाभ हो भी तो वह किसी हिसाबका नहीं है, परन्तु जब सुन्दर स्त्रीका रूप देखे, उसकी हँसगति और सुन्दर मुख, हृदय विस्तार और कदली जंघा देख अथवा नाटक या कुदरतका सुन्दर दृश्य देखे उस समय तथा जब कुष्ट, दुगंध और रोगसे बिगड़े शरीरवालेको देखे तब दोनों पर समदृष्टि रखे तब ही चक्षुरिन्द्रियका संवर होना कहला सकता है । इसीका नाम सचमुच संयम है। बाह्य संयम तो कईबार होता है, हो जाता है। इसीलिये शास्त्रकार कहते हैं कि “ उन्ही पुरुषोंको धन्य है, उन्हींको हम नमस्कार करते हैं कि जिन पुरुषोंके हृदयमें आधी आखोंसे देखनेवाली अर्थात् कटाक्ष नेत्रोंसे देखनेवाली स्त्री नहीं खटकती है।" ( इन्द्रियपराजयशतक )
चक्षुरिन्द्रियका संयम न करनेसे पतंगिया बहुत दुःख उठाता है । दीवाके रूपसे आकर्षित होकर चक्षुरिन्द्रियके परवश होकर उसमें अपनी पाहुती देकर अपने प्यारे प्राणोंसे हाथ धो बैठता है।
घ्राणेन्द्रियसंवर. घ्राणसंयममात्रेण, गन्धान् कान् के त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥१५॥
"नासिकाके संयममात्रसे कौन गंधों को नहीं छोडता ? परन्तु इष्ट और अनिष्ट गन्धोंमें रागद्वेष छोड़ देते हैं वे ही मुनि कहला सकते हैं।"
_ अनुष्टुप्. विवेचन-ऊपर लिखे अनुसार ही है। सेंट, लवन्दर, भत्तर या सुगन्धी पदार्थोकी गन्ध आनेसे राग न हो और विष्टा ' आदिकी दुर्गासे द्वेष न हो तब घ्राणेन्द्रियका संवर हुआ सम