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________________ अधिकार] मिथ्यात्वादिनिरोधः [ ६०५ कायाकी अप्रवृत्ति-कायाका शुभ व्यापार... कायस्तम्भान के के स्युस्तरुस्तम्भादयो यताः । शिवहेतुक्रियो येषां, कायस्तांस्तु स्तुवे यतीन् ॥११॥ . "एक मात्र कायाके संवरसे वृक्ष, स्तंभ मादि कौन कौन संयमी न हो सके १ परन्तु जिसका शरीर मोक्षप्राप्ति निमित्त क्रिया करनेको उद्यत होता है ऐसे यतिकी हम स्तुति करते हैं।" अनुष्टुप्. विवेचन-ऊपर वचनयोगके लिये कहा इसीप्रकार कायाकी अप्रवृति मात्रसे कुछ लाभ नहीं होसकता है, परन्तु आवश्यकता तो यह है कि कायाकी प्रशस्तप्रवृत्ति होनी चाहिये अर्थात् उसके द्वारा शुभ क्रिया-अनुष्ठान करने चाहिये ! इसप्रकार मन-वचन-कायाके योगकी प्रवृत्ति सम्बन्धी उपयोगी उपदेश किया गया है । अब पांच इन्द्रियों के संवरकी बात कही जाती है। श्रोत्रेन्द्रिय संवर. अतिसंयममात्रेण, शब्दान् कान् के त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु, रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १२ ॥ "कानके संयममात्रसे कौन शब्दोको नहीं छोड़ता ? परन्तु इष्ट और अनिष्ट शब्दोंपर रागद्वेष छोड़दे उसे मुनि समझना चाहिये ।” ... अनुष्टुप्. विवेचन-कुदरती संयम दो प्रकारसे आता है । चउरिन्द्रिय तक श्रोत्रेन्द्रिय होती ही नहीं है उनको तथा बहेरेको स्वभावसे ही श्रोत्रसंवर होता है । कृत्रिम संयम कानमें अंगुली डाल कर या कपडा भाड़ा लगाकर किया जाता है। इसप्रकार बाह्य संयमसे इन्द्रियोंका संयम तो अनेकबार होता है, परन्तु इस प्रकारके कर्माधीनपनसे हुए बाह्य संयमसे कुछ लाभ नहीं होता
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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