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५९४ ] अध्यात्मकल्पग्रुम
{ चतुर्दश कार्य करनेवाले को पापका अनुबन्ध नहीं होता है। अपने क्षयोपशम अनुसार उसे दीर्घदृष्टि से देखना चाहिये । जो सदैव अच्छे कार्य करनेके मनोरथ करते हैं और खराब संकल्प नहीं करते वे ही सच्चे भाग्यशाली हैं।
'सार्थ' अर्थात् शुभ परिणामवाला कार्य । इस हेतुसे ही परिणामके लिये बहुत चिन्ता न करनेका शास्त्रमें कहा है ।
" भवन्ति भरिमिर्भाग्यैधर्मकर्ममनोरथाः॥ फलन्ति यत्पुनस्ते तु तत्सुवर्णस्य सौरभम् ॥ १॥"
धर्मकार्य करनेके मनोरथ ही महाभाग्यसे होते हैं और यदि वे शुभ फल दे तो ऐसा समझे मानों सोने में सुगन्धिका संचार हो गया। ___ मन खोटे विचार कर कितने ही प्रकारके पापोंको उपार्जन करता है यम हम चित्तदमन अधिकारमें देख चुके हैं । कल्पनाशक्तिपर जबतक सुनियंत्रित तर्कशक्तिका अंकुश न हो तबतक सुकानरहित वहाणके समान मनोविकाररूप पवनसे यह आत्मा संसारसमुद्र में अस्तव्यस्तपनसे झोखा खाता रहता है और थोडासा झपट्टा लगनेपर एक दिशाकी ओर झुक जाता है और फिर पिछा दूसरी दिशामें आता है। अतएव आर्त, रौद्रादि दुर्ध्यानको उनके यथार्थ रूपमें समझकर छोड़ देना चाहिये और धर्मध्यान तथा शुकलध्यानको ध्याना चाहिये ।
__ वचनअप्रवृत्ति-निरवद्य वचनः वचोऽप्रवृत्तिमात्रेण, मौन के के न बिभ्रति । निरवयं वचो येषां, वचोगुप्तांस्तु तान् स्तुवे ॥६॥
" वचनकी अप्रवृत्तिमात्रसे कौन कौन मौन धारण