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कि उसकी हवामें, उसके वातावरणमें. उसके पड़ोसमें भी अखण्ड शांतिका साम्राज्य फैला हुआ रहता है और एक बार ऐसे जीवनके सम्बन्धमें आया हुआ प्राणी उसके हेतु, क्रिया या क्रम न समझता हो, न पहचान सकता हो, न पृथक्करण कर सकता हो, तिस पर भी वह अत्यन्त सुखका अनुभव करता है और ऐसा सत्संग करनेकी सदैव अभिलाषा रक्खा करता है अथवा ऐसे सम्बन्धमें व्यतीत हुये आनन्ददायक क्षणोंको अत्यन्त प्रेमसे बारम्बार स्मरण करता रहता है। समता ऐसी पवित्र वस्तुओंको जन्म देनेवाली है और स्वयं शुद्ध हैं इसलिये उसे प्राप्त करने वास्ते प्रयास मुमुक्षु जीव करते रहते हैं। इसकी प्राप्तिके अनेक साधनोंमें से यहां चार भावनायें, इन्द्रियोंके विषयोंपर समभाव, आत्मस्वरूपका विचार और स्वस्वार्थको पहचान कर उसकी सिद्धिमें निमग्नता इन चार साधनोंपर ग्रन्थकर्त्ताने अत्यन्त विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । समता सम्पूर्ण ग्रन्थका परम साध्य होनेसे और उससे रहित किये हुए शुभ कार्य भी संसारफल देनेवाले होनेसे इस अधिकारपर अत्यन्त विचारकर विस्तारपूर्वक विवेचन करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई थी अतः उस आवश्यकताकी पूर्तीके लिये यथोचित प्रयास किया गया है । समताके द्रष्टान्त अत्यन्त विचारणीय हैं अतएव वीर परमात्मा, अनाथी मुनि, गजसुकुमाल, शालिभद्र, स्कंदकाचार्य आदिके द्रष्टान्तोंपर भलिभांति मनन करना चाहिये । यह अधिकार प्रत्यन्त अगत्यका है।
द्वितीय स्त्रीममत्वमोचन अधिकार ऐहिक पदार्थमें आसक्ति होने के मुख्य कारणोंकी ओर लक्ष्य खीचता है । इस संसारमें असत्य
व्यवहार करनेके कारण स्त्रीरूप उपाधिसे ही उत्पन्न २ स्त्रीममत्व होते हैं । मनस्वी पुरुष यदि अकेला हो तो वह
अत्यन्त आनन्दपूर्वक अपना निर्वाह करनेके लिये आवश्यकीय वर तुओंका संग्रह पांच, पन्द्रह दिन में कर सकता है, परन्तु उसको विशाल, भव्य महलात बनवानेकी, रुपये-पैसे एकत्रित करनेकी, और भी जो अन्य अनेकों व्यवहार करनेकी आवश्यकता होती है इन सबका एक मात्र कारण यदि गहरे दिलसे विचार किया जाय तो जान पड़ेगा कि स्त्री ही है। सांसारिक व्यवहारको देखने पर पत्तो चलेगा कि खून बहाने जैसे प्रसंग तक बहुधा स्त्रियोंके