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अध्यात्मकल्पद्रुम [ चतुर्दश याति तन्दुलमत्स्यो द्राक्,
सप्तमी नरकावनीम् ॥२॥ "हे विद्वन् ! मनका संवर कर, क्यों कि तन्दुलमत्स्य मनका संवर नहीं करता है तो वह शिघ्र ही सातवीं नरकमें जाता है।"
अनुष्टुप. विवेचन-मनःसंवर-मनोनिग्रह अधिकार ( नवमाँ) इसी ही विषय पर लिखा गया है । यहां अधिक स्पष्ट शब्दोंमें मनोनिग्रह करनेकी चेतावनी दी जाती है। सर्व योगोंमें मनोयोगका रंधन अधिक कठिन है परन्तु वह उतना ही अधिक लाभदायक है । यदि मनोयोगका निरोध न किया जाय और मनको चाहे जैसे भटकने दिया जाय तो वह महापापबन्ध कराता है । तंदुलमत्स्य मनके वेगसे ही मातीत्र पापबन्ध करता है जिसका दृष्टान्त शास्त्रप्रसिद्ध है। यह तंदुलमत्स्य बड़े विशाल मगरमच्छोंकी आंखकी भॉपनीमें गर्भजपनसे उत्पन्न होता है। अंतर्मुहूर्त . गर्भ में रहता है और फिर उसकी माता मगरमच्छकी भॉपनीमें ही उसका प्रसव करती है । गर्भज होनेसे उसको मन होता है । उसका शरीर तंदुल ( चांवल ) जैसा होता है, और उसका आयुष्य अंतर्मुहूर्त का होता है। मगरमच्छकी आहार लेनेकी रीति विचित्र होती है। वह बहुतसा पानी मुँहमें भर लेता है और ऐसा करनेसे असंख्य मच्छलिये उसके मुंहमें प्रवेश करती है। फिर जो उसके मुंहमें जाली ( दांतोंकी पंक्ति ) होती है उसके द्वारा उस पानीको पिछा निकाल देता है, परन्तु इस जालीके छिद्र बड़े होनेसे असंख्य छोटी छोटी मच्छलिये निकल जाती हैं। इस समय दुर्ध्यानी तंदुलमत्स्य आँखकी भाँपनीमें बैठा बैठा
१ अंतर्मुहूर्त्तके अनेकों भेद होनेसे छोटे छोटे अनेकों अन्तर्मुहूर्त मिक कर भी अंतर्मर्स कान ही कहा जाता है।