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________________ ५५६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश का राग तो तहन प्रशस्त होता है; इसके स्थानमें यदि तू मेरे तेरे श्रावक बनाकर और दृष्टिराग कराकर उसके द्वारा निजको तथा उनको अनन्तकाल तक जो संसारमें भटकाता है यह बहुत अनुचित है। राग कम करने के दो साधन है, गृहस्थका कम परिचय 'गिहिसंथवं न कुज्जा' गृहस्थका अपरिचय, व्यर्थ बातोंका परि. त्याग, अभ्यासमें चित्तक्षेपन, शास्त्रोक्त रीति के अनुसार नवकल्पी विहार और एक स्थानपर अशक्ति-रोगादि कारणके सिवाय विशेष न ठहरनेकी टेव यह प्रथम उपाय है, जो बाह्य व्यवहार निमित्त है; और दूसरा उपाय रागका कटुविपाकपन, आत्मपरिणतिकी अस्थिरता आदिकी चिन्तवना करना है । गृहस्थचिन्ताके फल. त्यक्त्वा गृहं स्वं परगेहचिन्ता तप्तस्य को नाम गुणस्तवर्षे !। आजीविकास्ते' यतिवेषतोऽत्र, सुदुर्गतिः प्रेत्य तु दुर्निवारा ॥ १७ ॥ " स्वगृहका त्यागकर अन्यके गृहकी चिन्ताके परितापको सहन करनेवाले हे ऋषि ! तुझे क्या लाभ होनेवाला है ? (बहुत करे तो ) यतिके वेशसे इस भवमें तेरी आजीविका ( सुखसे ) चलेगी परन्तु परभवमें अत्यन्त कष्टदायक १ 'आजीविकास्ते ' इसप्रकार सर्वत्र पाठ है । जिसका अर्थ शब्दार्थमें लिखे अनुसार हो सकता है, परन्तु सकारकी अत्यन्त आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है । तेरी आजीवि एसा विशेष अर्थ होता है। 'आजीविका-आस्ते ' ऐसा भाव निकल सकता है अर्थात् यतिवेशसें तेरी आजीविका है-चलती है । इसप्रकार अर्थ करनेसे उचित भाव प्रगट होता है ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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