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४७८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[प्रयोदश कारमें विशेषतया विवेचन हो चुका है, और जो इस संसार में भटकानेवाले हैं वे महारिपु मुनिपुंगवोंपर कषायके प्रबल साधनोंके प्रभावमें असर नहीं करपाते हैं ।
३-सर्व कषायमय और संसारश्रेणी उत्पन्न करनेवाले राग और द्वेष हैं । इन दोनोंका स्वरूप में भलीभांति जानते हैं
और इनका उन्होंने त्याग भी करदिया है, इसलिये वे इन दोनों पर विजय प्राप्त करते रहते हैं।
-अशुभ कर्मोका बन्धन करानेवाला अशुभ अध्यवसायरूप कारण उनको नहीं होता है, वह दूसरे तथा तीसरे गुणसे स्वयंसिद्ध है।
५-वे समतारंगसे रंगे हुए होते हैं और सचे सुखके (भव्याबाध सुखके ) जाननेवाले होनेसे अनन्य मुख-शुद्ध सुख -आध्यात्मिक सुखके साथ उनका गहरा सम्बन्ध होता है।
६वे मुनिवर संयमगुणरूप विकसित उद्यानमें क्रीडा करते हैं अर्थात् गुणोंमें रमण करते हैं। उनका यह ही नेश्वयिक चारित्र है।
७-ऊपर प्रमाणे खेल करते करते भी निरन्तर अनित्यादि बारह भावना भौर मैत्री, प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य यह चार भावना रखते हैं। तदुपरान्त प्रत्येक ब्रकी जो पांच पांच भावनाये हैं उनको भी निरंतर रखते हैं।
___ यह वास्तविक भादर्श है। इन गुणोंसे विशिष्ट जीवनवाले प्राणी स्वयं संसार तैर गये हैं, तैर जाते हैं और अन्य संसारी जीवोंके लिये भी मनुकरणीय हो जाते हैं। ऐसे महात्मामोंको हमे नमस्कार करना चाहिये और उनका अनुकरण करनेकी सची भावना हमारेमें होनी चाहिये।
साधुके वेशमात्रसे मोच नहीं मिल सकता है.
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