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४६६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[द्वादश 'भृतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः। कल्पद्रुमे सत्यपि ही दरिद्रो,
गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥ १५ ॥
"गुरुमहाराज आदिका बराबर संयोग होनेपर भी जो प्राणी प्रमाद करता है वह पानीसे भरे हुए तालाबके होनेपर प्यासा है, (धन-धान्यसे) घर भरपूर है फिर भी वह मूर्ख तो भूखा है और अपने पास कन्पवृक्ष है फिर भी वह तो दरिद्री ही है।"
उपजाति. विवेचन-गुरुमहाराजका संयोग हो और उनसे देव तथा धर्मकी पहिचान हो सके तो फिर तिनों महान तत्त्वोंका लाभ उठानेसे न चूके । शुद्ध देव, सुगुरु और उनका बताया शुद्ध धर्म इनपर बिलकुल शंकारहित तरण-तारणरूप शुद्ध श्रद्धा होनेपर ही इस जीवका एका लिखा जाता है। श्रद्धा विना जितनी क्रिया तथा तप-जप-ध्यानादि किये जावे उनका बिन्दु रखा जाता है। ये बिन्दु भी किमती हो सकते हैं किन्तु इनके
आगे एका होवे तो। लाख पर लगाई एक बिन्दी नवलाख बढ़ाती है किन्तु सब बिन्दु एके के बिना व्यर्थ है । एका भी बिन्दु करनेके अभ्यासके बाद ही सिखा जाता है। यह बात अभ्यासीको न भूल जाना चाहिये ।
यहाँ कहनेका यह तात्पर्य है कि गुरुमहाराज आदि योग्य सामग्री प्राप्त होनेपर भी यदि यह जीव शुद्ध वर्तन नहीं करता है और आलस्यमें पड़ा रहता है, तो फिर इसके समान निर्भागी कोई नहीं है। जो चाहा हुआ मिलने पर भी उससे लाभ न उठावे तो बहुत बुरा है । इस श्लोक तथा नीचेके दोनों श्लोकोंमें कर्तव्य सम्बन्धी बहुत उपयोगी उपदेश किया गया है।