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४६०.] अध्यात्मकल्पद्रुम [छादश वाले हैं। वे कितना उपयोगी कार्य करते हैं वह इस अधिकारमें प्रारम्भसे ही देखते आ रहे हैं। उनका विनय करना, उनकी भोर भयोग्य व्यवहार न करना, उनसे कलह न करना और उनका किसी भी प्रकारसे तिरस्कार न करना इतना ही नहीं परन्तु उनके वचनोंको मान्य करना चाहिये। इसके विपरीत भाचरण करनेवाला गुरु द्रोही है, आत्मअवनति करनेवाला है और पतित है।
३ कर्मके अनौचित्यः-अपने योग्य व्यापारमें अनुचित भाचरण करना । इसमें दो भाव हैं-एक तो व्यापारमें अनीति, अशुद्ध व्यवहार, भप्रमाणिक आचरण और भाषण ! दूसरा अपने कर्त्तव्यके विरुद्ध वर्तन, परदारागमन, सट्टा, द्यूत आदि दुर्गुणोंका इसमें समावेश होता है।
४ अधर्मसंग-धर्म नामसे योग्य धर्मकी परीक्षा करके उसका अनुसरण करना धर्मसंग कहलाता है। इसके विपरीत योग्य रीति अनुसार परीक्षा न करनेसे 'स्वधर्ममें मरणनिमित्त' इस सूत्रका अनुसरण करना यह अधर्मसंग अथवा नियमरहित मूर्ख पुरुषोंकी संगति करना भी अधर्मसंग ही है। संगतिसे बहुत तात्कालिक प्रभाव होता है इसलिये सत्संगकी आवश्यकता बारम्बार बताई गई है। दुर्जनोंकी संगतिसे अनेकों कष्ट भोगने पड़ते हैं। .. ५ पिता आदिको अवलेहना-पुत्रधर्मका इससे नाश होता है, भनेक कष्टोंका सामना करना पड़ता है और बहुधा शिघ्र ही दुःखपरम्परा प्राप्त होती है। . ६ परवंचनः-स्पष्ट ही है। कानूनमें भी यह फौजदारी अपराध है ( Cheating ). .
ऊपर लिखी हुई छ बातें कई प्रकारकी आपत्तिये उत्पन्न करती है । कितनी ही बार अमुक पापका उदय अमुक कार्यके