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________________ अधिकार ] गुरुशुद्धिः [४५१ सफरोंको भी विचार करने योग्य होना कहा गया है। इन सबका संमेलन करके दोनोंकी मिन्नता और जैन तत्त्वज्ञानमें क्या विशेषता है और वह किस प्रकारसे सिद्ध हो सकती है उसे नवीन पद्धति अनुसार समझानेका भारी कर्चव्य गुरुके सिरपर है और वह हो सकने योग्य है । यह स्थिति समझी जा सके और इसका प्रतिकार हो सके तो मुनिसुन्दरसूरिजीके शब्दोंकी सार्थकता है। अन्तःकरणकी गहरी लगनीसे ( लागणीथी ) नीकले हुए यह विचार सबको आदरणीय है । साधुओंका उद्देश जीवनकी उन्नति करनेका हो तो उनको मुनिसुन्दरसूरिजीपर सत्य कहनेक लिये क्रोध न करना चाहिये, किन्तु अपना मार्ग सरल तथा सीधा बनाना चाहिये । यति, गोरजी या श्रीपूज्योंको पटिये नहीं पाड़ना, अयोग्य भाचरण न करना, अपने लिये भारम्भ न करना और इन्द्रियों के विषयोंमें आसक्त न होना उचित है। ये कड़े शब्द है, परन्तु संसाररोग मिटाने के लिये रामबाण उपाय है; शुद्ध जीवके लिये उपयोगी है । यह श्लोक जिस आशयसे लिखा गया है वह ही आशय ध्यानमें रखना चाहिये । इसमें अन्तःकरणकी गहरी लगनीसे सच्चे उद्गारोंको प्रगट किये गये हैं जिनपर बहुत मनन करनेकी आवश्यकता है । इस श्लोकमें " लुटेरे " शमसे वेषविहंबक अर्थात् साधुका नाम तथा वेश धारणकर दुश्चरित्रका सेवन करनेवाले पौर कुमार्गमें प्रवर्तन करनेवाले महासंसाररसिक कुगुरु तथा धर्मके नामसे पापाचरणमें प्रवर्तन करनेवाले श्रीपुज्य, यति, गोरजी आदिको समझे। . ... अशुद्ध देव-गुरु-धर्म-भविष्यमें चिन्ता. ... माद्यस्यशुद्धैर्गुरुदेवधमैं
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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