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गुरुशुद्धिः
अधिकार]
[४४९ तेरे शासनमें बड़े लुटेरे बन बैठे हैं। वे यतिका नाम धारण करके अप बुद्धिवाले प्राणियोंकी पुण्यलक्ष्मीको चुरा लेते हैं। अब हम तुझसे क्या पुकार करे ? स्वामीरहित राज्यमें क्या कोटवाल भी चोर नहीं हो सकते हैं ? " शार्दूलविक्रीडित.
विवेचन-पांचसौ वर्ष पहिलेके कहे हुए शब्दोंको उनके पिछे होनेवालोंने अधिक सत्य किये हैं । मुनिसुन्दरसूरिजीने स्पष्ट शब्दोंमें बहुत साहसपूर्वक सत्यको प्रगट किया है। ऊपर कहे अनुसार व्यक्ति परके दृष्टिरागसे बहुत-से जीवोंका बिगाड़ होता है, परन्तु बिगाड़ करनेवाला तो अत्यन्त कर्मबन्ध करता है। शिथिलाचार, प्रमाद, विनयका अभाव, अहमिंद्रता आदि संवेगी साधुओंमें भी दृष्टिगोचर होते हैं । बेचारे यति, गोरजी और पाटधारी श्रीपूज्य तो चोथे वर्गके गुरु हैं, वे तो शासनके सचे लुटेरे हैं; परन्तु जिन स्थानोंसे एकान्त शान्तिकी भाशा रख सकते हैं वहां भी थोड़ी थोड़ी खराबी घुसती जाती है और बढ़ती जाती है। सुधर्मास्वामीको प्रभुने पाट सौंपकर उनकी परंपरासे आगे बढ़ते हुए कितने ही कालके पश्चात् जो हुए वें शासनको बराबर नहीं चला सके और स्वामीरहित राज्यमें कोटवाल भी जैसे लुटेरा हो जाता है वैसा ही यहां भी हुआ। लोगों की पुण्यलक्ष्मी बढ़ाने के स्थानमें संसारमें भटकाकर पापपंक बढ़ानेवाले हुए यह बड़ा भारी जुल्म हुआ है। हमारी पुकार कोई नहीं सुनता है, हम किससे जाकर अर्ज करें ? जब बाड़ ही खेतको खाने लगे तो बचाव कैसे हो सकता है ? हे कोटवालों ! तुमे अपने कर्तव्यकों विचारों-आँखे खोलो ! तुम्हारा उत्तर दायित्वपन बहुत बड़ा है। यदि तुम लोगों को भटकाओंगे तो तुम्हारा भी छुटकारा न हो सकेगा। ५७