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________________ अधिकार ] और भातमणीत धर्मा पाश्रय लेना चाहिये। जिस रथके हाँकनेका स्थान गुरुमहाराजको प्राप्त हो और जिसके अपर धर्मकी ध्वजा फहराती हो और जिसका मार्ग अस्खलित वहन करता हो वह धर्मरथ मोक्षनगरको शिघ्र पहुंचे यह स्वाभाविक ही है। तेरे निजके कुलदेव, कुलगुरु, या कुलधर्म जो ऊपर कहे अनुसार उत्तम हो को उनका भादर करना, उनकी सेवा करना, परन्तु ठीक २ परीक्षा करके फिर ऐसा करना । उसमें अपने या पराये हैं इसके देखने की जरूरत नहीं हैं, परन्तु शुद्ध हो उसके पादर करनेको आवश्यकता है । घरका घोड़ा खराब हो, स्वारी अच्छी न हो और दूसरों का अच्छा हो तो उसमें बैठ जाना चाहिये; कारण कि सबका उद्देश इच्छित स्थानपर पहुँचनेका होता है। अपने तथा परायेमें कुछ विशेष विशेषता नहीं होती है । " प्रस्तुतः चालु विषय गुरुशुद्धिका है तिसपर भी विषयके अनुकूल धर्म तथा देवके याद मानेसे इन दोनोंका प्रतिपादन करना व्यर्थ नहीं है।" कुगुरुके उपदेशसे किया हुमा धर्म भी निष्फल है. फलादः वृथाः स्युः कुगुरूपदेशत;, कृता हि धर्मार्थमपीह सूद्यमाः। तदृष्टिरागं परिमुच्य भद्र ! हे, गुरुं विशुद्धं भज चेद्धितार्थ्यसि ॥ ५ ॥ " संसारयात्रामें कुगुरुके उपदेशसे धर्मके लिए किये हुए बड़े बड़े प्रयास भी फलके रूपमें देखे जावे तो व्यर्थ जान पड़ते हैं, इसलिये हे भाई! यदि तूं हितकी अभिलाषा रखता हो तो दृष्टिरागको छोड़कर अत्यन्त शुदगुरुकी उपा. सना कर।" वंशस्थवृन.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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