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________________ ४३८ ] জধান্সন্ধান [द्वादश गुरुतत्त्वकी मुख्यता. तत्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानं, हितार्थधर्मा हि तदुक्तिसाध्याः। श्रयंस्तमेवेत्यपरीक्ष्य मूढ !, धर्मप्रयासान् कुरुषे वृथैव ॥ १ ॥ "सर्व तत्वोमें गुरु मुख्य है, भात्महित निमित्त जो जो धर्म करनेके है वे वे उनके कहनेसे साध्य है। हे मूर्ख ! यदि उनकी परीक्षा किये बिना तूं उनका आश्रय लेगा तो तेरे धर्म सम्बन्धी किये हुए सब प्रयास (धर्मके कार्यों में कीजानेवाली महेनत ) व्यर्थ होंगे।" उपजाति. . विवेचन-देव और गुरुकी पहचान करानेवाले गुरुमहाराज हैं अतएव उनकी सब तत्वोंमें मुख्यता है । सिद्धमहाराज विशेष गुणी हैं फिर भी उनसे पहिले अरिहंत महाराजको नंवकारमें प्रथम नमस्कार किया जाता है । अमुक कार्य करने योग्य है या नहीं ? अमुक मार्ग जाने योग्य है या नहीं ? आदि आदि कार्याकार्य, पेयापेय, भक्ष्याभक्ष्यका विवेक गुरुमहाराजद्वारा होता है। अतएव सब तत्त्वोमें गुरुतत्त्वकी मुख्यता है। अब सबसे टेदा प्रश्न यह है कि उनको किस प्रकारसे ढुंढ निकालना चाहिये । यदि अयोग्य पुरुषको गुरुका स्थान प्रदान किया जाय तो वह अपने आपको तथा आश्रयमें आनेवामेको संसारसमुद्र में डुबा देता है । इसलिये व्यवहारमें इसीप्रकार धर्ममें भी एक बहुत आवश्यक प्रश्नपर हमको विचार करना चाहिये । गुरुस्थान ग्रहण करने की अधिक योग्यता साधुमें १ हितार्थिधर्मा इति वा पाठः ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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