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अधिकार] धर्मशुद्धिः
[३५ १ धर्मशुद्धिकी आवश्यकता।
शुद्धि शब्दसे ही प्रकट है कि धर्मशुद्धि इस प्रकारकी होनी चाहिये कि उसमें किसी भी प्रकारकी मलीनता न पाने पावें । शुद्ध धर्मरूप जलको अशुद्ध बनानेवाले प्रमाद, मत्सर भादि (दूसरा श्लोक ) पदार्थोसे सचेत रहना चाहिये । जब जब ये मलिन पदार्थ धर्मरूप जलमें दिखाई दें तब पानीको साफ करना या किसी भी प्रकारसे कचरा हटा देना चाहिये । यदि धर्मरूप जल शुद्ध होगा तो उसके पानसे राग आदि व्याधियोंका नाश हो जायगा और चिरशांति प्राप्त होगी । २ स्वगुणप्रशंसा और मत्सर । __ • धर्मशुद्धिको खराब करनेवाले कितने ही पदार्थ हैं उनमें ये दो दोष बहुत खराब हैं । इनके लिये जीव अपनी शुद्धि नहीं रख सकता है । अपनी प्रशंसा करानेके आकर्षणमें परवश हो जाता है । सबको अपनी स्तुति प्रिय मालुम होती है ( तीसरा श्लोक ), परन्तु उनमें स्तुति कराने जैसा कौन-सा गुण है ? स्वच्छ कपड़े पहना या शुद्ध व्यवहार रखना यह तो हमारा कर्त्तव्य ही है, जिसकी प्रशंसा करानेकी आवश्यकता नहीं है;
और यदि व्यवहार शुद्ध न हो और फिर भी शुद्ध है ऐसी प्रशंसा कराई जाय तो वह दंभ है, जो वर्त्य है, अतः किसी भी प्रकारसे अपनी प्रशंसा करानेकी अभिलाषा रखना अनुचित है। इसीप्रकार दूसरों के धन, सुख तथा कीर्तिकी इर्षा करना भी वर्ण्य है । कोई भी कार्य प्रशंसा करानेकी अभिलाषासे न करना चाहिये। यदि इस जीवको वस्तुस्वभावका भरोसा हो तो समझना चाहिये कि शुभ कार्य की अनुमोदना इसके पास है; दुनियासे उसके ढोल पिटवानेको भावश्यकता नहीं है । जवाहिरातमें भावाज नहीं परन्तु तेज है, कस्तूरी यह