________________
४२८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[एकादश घोर तपस्याके परिणाममें यदि देवलोकका सुख भी मिले तो वह किस कामका है ? आवश्यक क्रिया करनेके पश्चात् यदि वह ही कृत्य उसी अनुसार फिरसे बारम्बार करना पडे तो वह किस कामका है ? दान देनेके पश्चात् यदि फिर दान लेनेका
अवसर आवे तो वह किस कामका है ? अलबत “ या या क्रिया सा सा फलवती" ये सूत्र सच्चा है, परन्तु ऊपर बताये अनुसार मोक्ष जानेवाले मोक्ष जानेकी अभिलाषा रखनेवाले की दृष्टि से यह लाभ तद्दन अल्प है, इससे निष्फल है एसा कह दिया जाय तो भी अनुचित न होगा। हे चेतन ! तू परगुण असहिष्णु ताको छोड़ दे और ऐसा करके तेरे कर्मरूप रोंगोको दूर कर ।
शुद्ध पुण्य अल्प होनेपर भी उत्तम है. , मन्त्रप्रभारत्नरसायनादि
निदर्शनादल्पमपीह शुद्धम् । दानार्चनावश्यकपौषधादि, महाफलं पुण्यमितोऽन्यथान्यत् ॥ १२ ॥
" मंत्र, प्रभा, रत्न, रसायण आदिके दृष्टान्तसे (जान पड़ता है कि ) दान, पूजा, आवश्यक, पौषध आदि (धर्मक्रिया ) बहुत थोड़े होनेपर भी यदि शुद्ध हो तो अत्यन्त फल देती है और बहुत होनेपर भी यदि अशुद्ध हो तो मोक्षरूप फल नहीं दे सकती है।"
उपजाति. विवेचन-शुद्ध मंत्रोच्चारसे उचित समयमें पुण्यके प्रबलपनसे देवताओंके प्रसन्न होने पर, वे थोड़े-से प्रसन्न हों तो भी बहुत कार्य सिद्ध हो सकता है । इसीप्रकार सूर्य-चन्द्रकी प्रभा थोड़ी-सी पड़े तो भी सम्पूर्ण संसारको प्रकाशमय बना देती है । पांच रुपये भर लोहा और उतने ही वजनके रत्न (मणि, मोती,