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________________ अध्यात्मकल्पद्रुम [एकादश उसे दूर किया और मूलको सबोंने देखा; परन्तु इसका परिणाम क्या हुआ ? फल तो न मिला, परन्तु वृक्ष ही नष्ट हो गया। इसीप्रकार अच्छे कामोंका यश अच्छा होगा ऐसा विचारकर यह जीव सुकृत्यरूप मूल दूसरोंको दिखानेके लिये उखाड़कर उसकी फिरती अप्रसिद्धतारूप जो मिट्टी श्रादि होती है उसे दूर करता है, ऐसा करनेसे उसका यश तो होता है परन्तु उसके फल का नाश हो जाता है, और सुकृत्यके नाशसे वह स्वयं भी नाशको प्राप्त होता है । यहाँ योजना इस प्रकारकी है-(१) सुकृत्योंकी मूलके साथ योजना, (२) आत्माकी वृक्षके साथ (३) ( सुकृत्योंके ) स्तवन, श्रवण, निरीक्षणकी (वृक्षके) प्रगटपनके साथ, ( ४ ) ( सुकृत्यके ) गुणोंका अभाव उस वृक्षके फलनेके अभावके साथ और (५) धर्मनाशसे वृक्षके अधःपातके साथ योजना करें। इसीप्रकार दूसरे पुरुष अपने गुण अथवा भले कार्योंकी स्तुति करें तो इसमें क्या लाभ है ? तात्त्विक विचार करनेसे जान पड़ता है कि कीर्ति तथा मानकी इच्छा भी अज्ञानजन्य है, इसमें कोइ दंभ जैसा नहीं है, और विचक्षण पुरुष कभी उसकी अभिलाषा नहीं रखते हैं। आगन्तुक रीति से मिल जाय तो चाहे मिल जाय परन्तु उसके लिये चारित्रवान् अपना वर्तन करे यह चारित्रको शोभा नहीं देता है, और बहुधा संसारमें ऐसा होता है वो भी जो इसके पिछे २ भगता है उसको यह नहीं वरती और व्यर्थ पिछे दौडनेका कष्ठ उठाता है । कीर्ति के लोभीके सुकृत्यका नाश हो जाता है और कईबार ऊलटा अपमान होता है । यह सब हकिकत अनुभवगम्य है और अवलोकन करनेवालेको शीघ्र ही मालूम हो सकती है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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