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________________ अधिकार] धर्मशुद्धिः [४११ लिये धर्म ही सबकुछ है, अतः नवीनयुगकी प्रवृतिमें पड़नेके साथ ही साथ यदि धर्मतत्त्व क्या है ? इसके विचारनेका अवकाश रहे तो कुछ अंशमें मृदुता होगी। वरना धनके विचारमें राज्यद्वारी खटपटमें और निर्णयरहित वादविवादमें वृथा जीवन पूर्ण हो जायगा। इस युगमें धर्मशुद्धिकी अत्यन्तं भावश्यकता है। प्रारम्भमें ही कवीश्वर कहते हैं कि शुद्ध धर्मसे जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु आदिका बड़ा भय नष्ट हो जाता है। यह जीव प्रमाद, मान, माया, कपट आदिसे अपने आपको तथा अपने धको मलिन कर देता है । धर्मसे जन्म, बुढ़ापा और मृत्युका भय कम हो जाता है, नष्ट हो जाता है; परन्तु यह धर्म शुद्ध होना चाहिये । यह जीव विषयकषाय आदि पौद्गलिक भावोंमें फँसकर धर्मको मलिन कर देता है, अर्थात् धर्मरूप सांचेमें दुःख टालनेकी जो शक्ति है वह इसी प्राणीके संसर्गसे कम हो जाती है-नष्ट होजाती है । औषधिमें रोगोंको हरनेकी शक्ति है, परन्तु जब उसी औषधिमें विरुद्ध द्रव्य मिला हुआ हो तो वह अपना गुण छोड़ देती है; इसीप्रकार धर्म, भवके दुःख टाल सकता है, परन्तु प्रमाद आदि उसकी शक्तिको कम कर देते हैं; धर्म शुद्ध स्वर्ण हैं, परन्तु इसमें अनेक प्रकारका मिश्रण हो जाता है; धर्म शुद्ध जल है, परन्तु इसमें कूड़ा करकट मिला दिया जाता है; धर्म चन्द्रवत् है परन्तु इसमें लांछन लगादिया जाता है । वे लांछन कौन कौन-से हैं, उनमें से कुछके नाम यहाँ दिये जाते हैं। शुद्ध पुण्यजलमें मेल-उसके नाम. . शैथिल्यमात्सर्यकदाग्रहक्रुधो ऽनुतापदम्भाविधिगौरवाणि च । प्रमादमानौ कुगुरुः कुसंगतिः,
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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