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________________ ३९८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ दशवाँ कर फिरसे देखे तब तक ये सब लोप हो जावेगें और फिर कहाँ जावेगें इसका पत्ता भी न लगेगा । वस्तुस्थिति ऐसी है इसको जान कर, यह विचार कर कि सच्चा हितकारक कोन है ? इसको समझनेके पश्चात् जनसमूहके लाभके कार्यको कर | आत्महित साधकर इसभवप्रपंचकी पंचायतसे दूर रह । सर्व उपदेशका यह दृष्टिविन्दु है कि आत्महित कर, संसारबंधको काट डाल और समतारसमें लीन हो जा। इस श्लोकमें पौद्गलिक वस्तुओं और प्रेमीके प्रेमका वस्तुतः क्या स्वरूप है उसके जानने-विचारनेकी सूचना की गई है और वस्तुतः तेरा हित क्या है उसको विचारकर करनेकी आवश्यकता होना प्रगट किया है। जिन वस्तुओंके बन्धनमें फंसकर यह जीव तद्दन बाह्य व्यवहारमें फँसा हुआ रहता है, वे वस्तुए बंधनके अथवा प्रेमके योग्य नहीं हैं, और वैसी काल्पनिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिये यह जीव इतना मस्त हो जाता है कि स्वयं कौन है ? अपना कौन है ? अपना हित क्या है ? कहाँ है ? किसप्रकार प्राप्त हो सकता है ? प्राप्त करनेकी पूरी आवश्यकता है या नहीं ? आदिके विषयमें विचार करनेका प्रसंग भी नहीं मिल सकता है । इस भूलको सुधारनेका सच्चा उपदेश यहाँ है । सगे स्नेही अर्थात् स्त्री, पुत्र, मित्र, शरीर और पैसे आदि तेरेसे प्रेम किये जाने योग्य नहीं हैं, कारण कि ये तेरे नहीं है। आत्मजाग्रति. सुखमास्से सुखं शेषे, भुङ्क्ष पिबसि खेलसि । नजाने त्वग्रतः पुण्य-विना ते किं भविष्यति ? ॥२४॥ __ " सुखसे बैठता है, सुखसे सोता है, सुखसे खाता है, सुखसे पीता है और सुखसे खेलता है, परन्तु तू यह क्यों
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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