SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ दशवाँ निर्दयतापूर्वक उठा लिया है ऐसा समझकर भी तू स्वहित साधननिमित्त शिघ्रता क्यों नहीं करता है ?" उपजाति. विवेचन-जिन भाइयों तथा गलिके लड़कोंके साथ खेलकूद किया, साथ पाले पोषे गये, साथ आनन्द किया, जिनपर अत्यन्त स्नेह था, जो प्राणसे भी अधिक प्रिय थे ऐसे भी अनेकों इस संसारसे कूच कर गये । प्रत्येक प्राणीको अनुभव होगा कि उसके निकटवृति मित्र, अत्यन्त स्नेहवान स्त्री या भर्ता, पुत्रपर अत्यन्त स्नेह रखनेवाले मातापिता, निकटवृति सहायक और भाई प्रेमी इस संसारको छोड़कर चल बसे हैं अथवा उनको यह संसार परित्याग करना पड़ा है । उनकी अकाल मृत्युको देख कर जो बोध होना चाहिये वह यह है कि अहो ! उनकी तरह हमारी भी एक न एक दिन अवश्य इस संसारसे कूच करनेकी वारी आयेगी, इसलिये हमको जो कुछ करना हो कर लेना चाहिये, भात्महित क्या है ? इसे विचारना और इसे करना योग्य है। मरनेसे अल्पमात्र भी न डरना चाहिये परन्तु प्रत्येक क्षण उसके लिये तैयार रहना चाहिये । भर्तृहरि भी वैराग्यशतकमें कहते हैं किः वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलु ते, समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपिगमिताः । इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतनाद्गतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः ।। जिनसे हम उत्पन्न हुए उनको भी गये हुए कितने ही बर्ष हो गये हैं। जिनके साथ हम बड़े हुए उनका भी केवल स्मरणमात्र रह गया है, अब हम भी गिरनेवाले हैं और हमारी अवस्था भी नदी के समीप उगे हुए वृक्षके समान हो गई है। इसीप्रकार शांतसुधारसकर्ताने भी कहा है कि
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy