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________________ ३९२] अध्यात्मकल्पद्रुम । दशवाँ प्रवेश न कर सकेगा । यदि तु प्रवेश करनेकी अभिलाषा करेगा तो दूसरे तुझे आते देखना भी न चाहेगें; अतएव यदि तूजे द्वार न रखे होते तो तुझे बाहर ही न जाना पड़ता ।' सेठ इसका भावार्थ समझ गया और घरका ममत्व छोड दिया । महादानेश्वरी होकर सबका दान करनेके पश्चात् महन्तके पाससे ही व्रत लेकर प्रात्मकर्ममें उद्यत होगया। इस श्लोकका यह भाव बिचारने योग्य हैं। तेरे कृत्य और भविष्यका विचार. कर्माणि रे जीव ! करोषि तानि, यैस्ते भविन्यो विपदो ह्यनन्ताः । ताभ्यो भियातद्दधसेऽधुना किं ? संभाविताभ्योऽपि भृशाकुलत्वम् ॥ २० ॥ " हे जीव ! तू ऐसे कर्म करता है कि जिसके कारण तुझे भविष्यमें अनन्त आपत्तियें उठानी पड़ती है, तो फिर संभक्ति ऐसी विपत्तियों के भयसे इस समय अत्यन्त आकुल व्याकुल क्यों होता है ?" इन्द्रवज्र. विवेचन-गुरु महाराज व्याख्यान देते हो उन शास्त्रोंको श्रवण करते समय जब नरकका अधिकार चलता हो तब नारकी १ तीसरी पंक्तिमें चेत् ' ( ' तत ) के स्थानमें ] पाठान्तर है । इन दों पंक्तियोंका अर्थ इसप्रकार करना चाहिये । यदि तू विपत्तियोंसे नहीं डरता हो तो इस भवमें कल्पित तथा आरोपण की हुइ अथवा भविष्यमें होनेवाली ऐसी इन विपत्तियोंसे तूं आकुलव्याकुल क्यों हो जाता हैं ? " इसका भाव यह है कि तुझे भविष्यमें अनेकों विपत्तिये हों ऐसे तू कार्य करता है, परन्तु उन्हें सहन करनेकी तुझमें शक्ति नहीं है, क्योंकि अभी इस भव में साधारणरूपसे कदाच मत्र होनेवाली अथवा तद्दन काल्पनिक विपत्तियोंसे डरा करता हैं और भविष्यमें चाहे विपत्तिये क्यों न झेलनी पडे ऐसा तूं बोलता हैं बह नितान्त अनुचित है, परस्परविरोधी है और अविचारी है ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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