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३८६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशवाँ भी छोड़ दे, परन्तु एक वीतराग अहंत परमात्माके बताये हुए धर्मको कदापि न छोड़ धर्मसे भवोभवमें ये पदार्थ, (पैसा, सुख आदि) प्राप्त होगें, परन्तु इनसे (पैसों आदिसे) वह (धर्म) मिलना दुर्लभ है।"
वंशस्थ. विवेचन- गत श्लोकमें कहा गया था कि तुझे यहाँ धर्म करनेका सुअवसर प्राप्त हुआ है, उसी बातको यहाँ विशेषतया स्पष्ट किया जाता है। धर्मके लिये सब कुछ छोड़ देना योग्य है, किन्तु किसी भी वस्तु निमित्त चाहे जितने लाभ निमित्त धर्मको छोड़ना योग्य नहीं है । पुरुष पांच दस रुपयेके लिये धर्मको छोड़ देता है, मिथ्या भाषण करता है और कितने ही पुरुष तो एक दमड़ीके लिये भी सेंकडो शपथ खाते हैं, इन्द्रियोंको तृप्त करने निमित्त अभक्ष्य पदार्थोंका सेवन करते हैं, अकाले भोजन करते हैं, अपेयका पान करते हैं और जैसा मनमें आता है वैसा बोलते हैं । यह जो सब कुछ होता है इसका कारण विचारने योग्य है । इस जीवको यह भान नहीं है कि अपना क्या है
और पराया क्या है, आत्मिक क्या है और पौद्गलिक क्या है ? अर्थात् भेदज्ञान नहीं है । यह ज्ञान जब तक उचित रूपसे नहीं होता है तब तक सब व्यर्थ है । इस ज्ञान के बिना मनुष्य जितना कहें उतना दुष्ट आचरण करता है, किन्तु विचार नहीं करता किधर्मादधिगतैश्वर्यो धर्ममेव निहन्ति यः। कथं शुभायतिर्भावी स स्वामिद्रोहपातकी । __"जिस धर्मके प्रभावसे ऐश्वर्य प्राप्त करता है उसी ऐश्वर्यसे उसके स्वामी धर्मका नाश करता है तो फिर उसका भला क्यों हो सकता है ? वह स्वामीद्रोही है जिससे महापापी है।" इसप्रकार धर्मका नाश करनेवाला स्वामीद्रोह करता है और स्वामीद्रोही इस भव तथा परभवमें दुःखी होता है। शास्त्रकार