SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३७३ सका अतएव भिक्षा मागनेके लिये परदेश गया। वह बेचारा अनेकों प्रामोंमें भटकता रहा परन्तु उसको पेटभर भिक्षा नहीं मिली, तब अन्तमें घबरा कर उसने फिरसे अपने प्रामका रास्ता पकड़ा । मार्ग में एक प्राममें यक्षका मन्दिर पाया, वहाँ उसने रात काटी । अपनी दरिद्रता पर विचार करता हुआ वह अर्धजागृत स्थितिमें सोता हुा था कि मध्य रात्रिको एक सिद्ध अपने हाथमें चित्रित घडा लिये हुए वहाँ आया। जमीन पर एक स्वच्छ स्थान पर उसने उस घड़ेको रक्खा तो शिघ्र ही उस घड़ेके प्रभावसे एक रम्य भवन बन गया। फिर वह बोला कि " स्त्री हो जा" तो वहाँ एक नवयौवना सुन्दर वेशवाली रतिके अवतार जैसी स्त्री उत्पन्न हो गई । इसके पश्चात् जो जो वह सिद्ध कहने लगा वह वह ही होने लगा । सम्पूर्ण रात्रि वह उस स्त्रीके साथ विविध प्रकारके कामभोग भोग कर सर्व रसवतीका आहार करके प्रभात होने पर उसने सर्व हटा लिया। पहेला भिक्षुक यह सब देखा करता था और विचार करता था कि " अरेरे ! मैं तो पृथ्वी पर नितान्त दुर्भागी हूँ। मुझे तो न तो माया ही मिली न प्रभू ही मिले; इस लिये अब मुझे तो इस सिद्धकी सेवा करना उचित है।" ऐसा सोच कर उस भिखारी ने सिद्धका आश्रय लिया और उसकी सेवा करने लगा । बहुत समय तक दत्तचित्त होकर उस सिद्धकी सेवा करनेसे अन्त में वह उस पर प्रसन्न हुआ और कहा कि " बोल, तेरी क्या अभिलाषा है ? " तो भिक्षुक ने प्रार्थना की कि “ मुझे ऐसा बनावों कि में भी तुम्हारे जैसे सुन्दर भोगोंको भोग सकूँ।" इस पर सिद्धने उससे पूछा कि तुझे घना चाहिये या विद्या ? दौनोंमेंसे क्या चाहिये ? वह भिक्षुक जो अत्यन्त दुर्भागी था उसने यह सोच कर कि भविष्यमें विद्या साधनेका कष्ट न उठाना पड़े इस
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy