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३७० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ दशवाँ महाराज उसका निवारण करके देशविरति तथा सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्र देकर फिरसे संसारिक सुखोंकी ओर दृष्टि डालनेका भी प्रतिबंध करते हैं, फिर भी पूर्वोक्त राजाके समान यह प्राणी फिरसे संसारिक सुखोंका उपभोग करनेकी अभिलाषा करता है-भोगता है; वह कर्मकी असाध्य व्याधिके वशीभूत होकर दुर्गतिमें चला जाता है कि जहाँसे फिर उसके लिए ऊँचा पाना असम्भव है।
५ तीन वणिकोंका दृष्टान्त. एक ग्राममें एक बणिक रहता था। वृद्धवयका होनेसे उसने संसारका तड़का-छाया देखा था। उसके तीन पुत्र थे । वे कैसे चतुर है इनकी परीक्षानिमित्त प्रत्येक पुत्रको एक एक हजार सोनेकी मोहरें देकर कहा कि इस द्रव्यसे व्यवहार चलाकर अमुक समय पर वापीस मेरे पास आना । व्यवहार चलाकर वापीस आना ऐसा कहा किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया । तीनों पुत्रों ने सोनेकी मोहरोंको लेकर भिन्न भिन्न नगरोंको प्रस्थान किया । एक लड़का तो बिलकुल मौजशौक नहीं करता है, खानेका, सोनेका तथा फिरनेका उसको किसी प्रकारका शौक नहीं है इसीप्रकार परस्त्री, सट्टा या ऐसा कोई अन्य दुर्व्यसन भी उसमें न था । उसने तो व्यापार करके एक बड़ी रकम एकत्र की और व्यय आवश्यकतानुसार सुचारु रूपसे करनेसे बहुत धनवान हो गया। दूसरा भाई इस विचारका था कि मूल रकमको तो जैसेकी तैसे बनाई रखना, और बाकी जो व्याज या हांसील मिले उसे व्यय कर देना चाहिये । अतएव उसने मूल पूंजीमें न तो एक पाई भी बढ़ाई न कम ही की । तीसरा भाई लहरी था। इसने तो खानेपीने तथा मौजशोकमें सब रुपयोंको उडा दिया, व्यौपार किया ही नहीं । मुहत पूरी होनेपर सब भाई वापिस