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________________ [ ३५९ अधिकार] बैराग्योपदेशाधिकारः छोटी सी बात अत्यन्त रहस्यमय है । पापकर्मसे निरन्तर डरते रहना चाहिये और क्षणिक सुखके लिये पापकर्म न करना चाहिये । सदैवं पापकर्म करते समय विचार करना चाहिये कि यदि सामेवाले पुरुषके स्थान पर हम स्वयं हों और हमें इस बातका भान हो तो हमारे चित्तकी क्या दशा होगी ? पाप न करना ही इस जीवनकी सार्थकता है । अनन्त कालसे संसारमें नये नये जन्म धारण कर भटकता रहा हूँ उसीप्रकार यह मनुष्य जन्म भी एक भ्रमणमात्र हो जायगा ऐसा जिसको भय प्रतीत होता हो वह पापाचरण कदापि न करेगा। पाप किसको कहना चाहिये यह जानना कठिन नहीं है। यदि कभी सूक्ष्म बाबतमें शंका उपस्थित हो तो विद्वानोंसे परा. मर्श कर समाधान कर लेना चाहिये और सामान्य व्यवहार निमित्त तो अठारह पापस्थानोंका स्वरूप यथास्थित समझ लेना चाहिये । जैनशास्त्रका आधार जीवदया पर है अतएव इन दो श्लोकोंमें दया करनेका मुख्यतया उपदेश किया गया है। इसी अनुसार अन्य सर्व पापों निमित्त समझलें। प्राणीपीड़ा-इनके निवारण करनेकी आवश्यकता. यथा सर्पमुखस्थोऽपि, भेको जन्तूनि भक्षयेत् । तथा मृत्युमुखस्थोऽपि, किमात्मन्नर्दसेंऽङ्गिनः॥११॥ " जिस प्रकार सर्पके मुहमें होते हुए भी मेंढक (देड़को ) अन्य जन्तुओंका भक्षण करता है इसीप्रकार हे मात्मन् ! तूं मृत्युके मुंहमें होने पर भी प्राणियों को क्यों कष्ट पहुंचाता है ?" _ अनुष्टुप्. - विवेचन-यदि यहाँपर ही बैठ रहना हो तो ठीक भी है, परन्तु इसकी आशायें तो विशाल पर्वतके समान है और
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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