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अध्यात्मकल्पद्रम
[ दशा
प्रकार यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा
और समाधि ये अष्टांगयोग (जिसके स्वरूप निमित्त योगशास्त्रको देखें ) आदि सिद्धियोंके प्राप्त होनेकी आशा रखना मूर्खता है ।
__ सबका सार यह है कि प्रत्येक बाबतमें होंस रखनेके बदले उसके अधिकारी बनना चाहिये । लक्ष्मी यह दासी है और उसके अधिकारी के समीप वह तद्दन सुगमतासे चली जाती है । जिस प्रकार उपरोक्त तीनों बातोंकी प्रयास बिना व्यर्थ वांछा रखना मूर्खता है उसीप्रकार धर्म किये बिना दुखि क्षयकी आशा रखना यह भी व्यर्थ है; ऐसा कभी भी नहीं हो सकता है । अधिकारी हुए बिना वांछा न करना यह सामान्य नियम है और यह छोटी तथा मोटी प्रत्येक बाबतमें लागु पड़ता है ।. पुण्याभावे पराभव और पुण्यसाधनका करणीयपन. पदे पदे जीव ! पराभिभूतीः,
पश्यन् किमीर्ण्यस्यधमः परेभ्यः । भपुण्यमात्मानमवैषि किं न ? ___ तनोषि किं वा न हि पुण्यमेव ? ॥ ९ ॥ ___" हे जीव ! दूसरों द्वारा किये हुए अपने पराभवको देख कर तू मधमपनसे दूसरोंसे ईषो क्यों करता है ? तेरे खुदके आत्माको निष्पुण्यक क्यों नहीं समझता है ? अथवा पुण्य क्यों नहीं करता है ?"
उपजाति. विवेचन-अपना मान ( Self-Respect ) नामका कहलानेवाला सद्गुण भी अहंकारकी कोटिमें ही आता है । जब जीवका किसी स्थानपर पराभव होता है तब वह पराभव करनेवालेसे ईर्षा करने लगता है अथवा उस पर क्रोधित होता है; किन्तु खुदका आत्मा पराभव पानेका अधिकारी क्यों कर हुआ