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________________ अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३४७ किया गया है; इसीप्रकार यति, गोरजी और साधुको भी उपदेश किया गया है। लोगोंको दिखाने निमित्त प्रोघा, मुहपत्ति रखना और बड़े बड़े व्याख्यान देना और प्रच्छन्नपनसे चाहे जैसे आचरण करना पेटभरापन अथवा नरकगामीपन बतलाता है। इस सब बातका यह तात्पर्य है कि हाथी के समान दो प्रकारके दाँत न रखने चाहिये । लोकोंको दिखानेका आचरण दूसरा और वास्त. विक आचरण दूसरा ऐसा कदापि न करना चाहिये । तथा दंभ. को हटा देना चाहिये । साधु श्रावक समान जान पड़नेवाले प्रत्येक प्राणीको इस श्लोकका विचार करना चाहिये । " सम्यक्त्ववाले अथवा विरतिवाले प्राणीको भावी निर्लेपतासे निर्लेप इसप्रकार संबोधन कर सकते हैं; इसलिये श्लोकमें निरंजन शब्दसे सम्बोधन किया गया है और कोमलतासे भामं. त्रित करने पर जीवका चित्त प्रसन्न होता है जिससे वह सुननेको तत्पर होता है । अतएव बुद्धिमान शब्दसे सम्बोधित किया गया है । " ( टीकाकार ) जैन शास्त्रकार वस्तुकी प्ररूपणा करते समय दो नयमेंसे किसी एक नयकी मुख्यता रखकर प्ररूपणा करते हैं। किसी स्थानपर व्यवहारकी मुख्यता होती है और किसी स्थानपर निश्चयकी मुख्यता होती है। उसमेंसे व्यवहारकी अपेक्षासे यह जीव निरंजन नहीं है परन्तु निश्चयकी अपेक्षासे यह जीव निरंजन है; कारण कि कोई भी असत् वस्तुकी उत्पत्ति निश्वयनय नहीं मानता है इसलिये ही निश्चयके मतानुसार कोई अज्ञानी अथवा मिथ्यात्वी जीव ज्ञान व सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं कर सकता है परन्तु ज्ञानी तथा सम्यक्त्वी ही उसकी प्राप्ति कर सकता है, अर्थात् जिसका सत्तारूपसे अमल होता है वह आवि. र्भावरूपसे होता है ऐसी उसकी मान्यता है। इस मान्यताके आधारपर ही यहाँ उपदेश्य जीवको निरंजन शब्दसे सम्बोधित
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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