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________________ अधिकार ] चितदमनाधिकार [३०७ करके उस मनको शिघ्रतया वश में करले । " . उपजाति. विवेचन-मनपर विश्वास न करना और दुर्विकल्प न करना इन दो बातोंका वर्णन हो चुका, अब उनसे आगे बढ़ने पर दूसरी सीढ़ीमें मनपर अंकुश रखना, मनको वशमें रखना यह बहुत भावश्यक है । मनके वशीभूत होजाने पर देवसुख और मोक्षसुख मिल सकता है और यदि मन वशीभूत न हो तो दोनों मिट्टीमें मिल जाते हैं और दुःखपर दुःख आ घेरते हैं। __संसारसे मुक्त, महान तपस्या करनेवाले, दूतकी बातोंपरसे माने हुए विश्वासघाती कर मंत्रियोंके साथ युद्ध करनेके विचारसे मनके परतंत्र हुए हुए, पुत्रपरके स्नेहसे शुद्ध मार्गसे मानसिकपनसे भ्रष्ट हुए हुए प्रसन्नचन्द्र राजर्षि अघोर तप तपनेपर भी सातवीं नारकीमें जाने के लिये तैयार थे, किन्तु थोडीसी देरमें विचारमें अपने शस्त्रोंको समाप्त होते जानकर अपने मुकुटका ही शस्त्रके समान प्रयोग करने का विचार कर जब उन्होंने अपने सिरपर हाथ डाला तो वह राजर्षि सचेत हुए और अपने मनको वशमें करनेका प्रयत्न किया; फिर पांच ही मिनटमें सब कमोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया । असंख्य भवमें भी जिसकी सिद्धि होना कठिन है उसको उन्होनें पांच मिनिट में ही सिद्ध किया । शास्त्रमें कहा है कि " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः " अतः अनन्त संसारमें भटकाने तथा मोक्षप्राप्तिका साधन भी मन ही है । इसपर जोर देकर कहा गया है इसलिये यह बराबर ध्यानमें रखने योग्य है । इसीप्रकार बेचारा तंदुलमत्स्य मगरमच्छकी आँखकी भौंहमें उत्पन्न होकर वहाँ बैठा बैठा देखता है कि मगरमच्छ मच्छलियों का भक्षण करता है उस समय प्रथम पानी मुंहमें लेता है और फिर मच्छलियोंको रोककर पानी निकाल देता है; परन्तु वैसा
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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