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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ अष्टम शास्त्राभ्यास और वर्तनम बहुत धनिष्ठ सम्बन्ध है, यह हमने तत्त्वसंवेदन ज्ञानकी व्याख्यासे देखा है ।शास्त्राभ्यासद्वारमें चतुर्गति क्लेशोंका वर्णन करनेमें ग्रन्थकारका बहुत गहरा आशय भरा हुमा जान पड़ता है । यह प्राणी जिन जिनमें सुख मान बैठा है उसकी यह मान्यता झूठी है इसका सामान्य शब्दोंमें वर्णन किया है और विशेषतया अनुभव से अवलोकन करनेका
आग्रह किया गया है । वस्तुतः संसारमें सुख नहीं है। यह हमने प्रथम समता अधिकार में बहुत विस्तृत कल्पना तथा प्रमाणसे देखलिया है । इस मृगतृष्णाके लोभसे आकर्षित हुआ अल्पसत्त्वी प्राणी दोड़ादोड़ करता है परन्तु वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता है । उक्त चतुर्गति दुःखवर्णन निमित्त कदाच यह कहा जावे कि दुःख के साथ सुख भी है फिर सुखपर भी भार क्यों नहीं दिया जाता है ? केवल दुःखकी ही क्यों पराकाष्ठा बतलाई जाती है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि वहां सुखका लेशमात्र भी नहीं है, जो कुछ है वह कल्पित है । यदि हो तो हमे उसको भूला देनेकी आवश्यकता नहीं। सम्पूर्ण अधिकारका एक ही सार है कि शास्त्राभ्यास उत्तम प्रकारसे करना और अपना साध्य निरन्तर लक्ष्य में रखना चाहिये । इस साध्यको प्राप्त करनेमें जो जो कारण प्रतिबन्ध करनेवाले हों उनको ढूंढ़ निकालना और उनको दूर करने तथा साध्यप्राप्तिके मार्गको सीधा और सुगम बनाने का प्रयास करना चाहिये। स्थूल कचरा दूर करनेके साथ साथ मानसिक कचरा भी दूर करदेना चाहिये और वह क्या है ? कैसा है ? कैसे दूर करना चाहिये ? आदि निमित्त आनेवाले अधिकार में विचार किया जायगा । ॥ इति सविवरणश्चतुर्गत्याश्रितोपदेशगामितोऽष्टमः
शास्त्रगुणाख्योऽधिकारः॥