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अधिकार] शास्त्राभ्यास और वर्तन [२१९ से कड़वे हुए मनुष्य जन्मको पारमार्थिक धार्मिक कार्यद्वारा पुण्योपार्जन करके मधुर बना । अब चारों गतियोंमें होनेवाले दुःखों का वर्णन करके वे दुःख कदापि न हों ऐसा प्रयत्न करने निमित्त उपदेश करते हैं।
उक्त स्थिति दर्शनका परिणाम.. इति चतुर्गतिदुःखततीः कृति
न्नतिभयास्त्वमनन्तमनेहसम् । हृदि विभाव्य जिनोक्तकृतान्ततः,
कुरु तथा न यथा स्युरिमास्तव ॥ १५॥ ___ " इसप्रकार अनन्तकालपर्यंत (सहन की हुई ), अतिशय भय उत्पन्न करनेवाली चारों गतिकी दुःखराशियोंको केवली भगवन्तके कहे हुए सिद्धान्तानुसार हृदयमें विचार कर हे विद्वन् ! ऐसा कार्य कर कि जिससे तुझे ये कष्ट फिरसे सहन न करने पड़ें।"
द्रुतविलंबित. विवेचन-कष्टोंको जानकर, विचार कर, अनुभव कर उनका परिणाम यह होना चाहिये कि पुरुषार्थ करके उपायप्रतिकार-ऐसा करना चाहिये कि जिससे भविष्यमें ये पीड़ायें ही न होने पावें। सब प्राणी कल्पित सुख मिलनेकी अभिलाषा रखते हैं और मान्यतानुसार उसको प्राप्त करते हैं, परन्तु सिद्धान्तोंके अनुसार वास्तविकतया विचार करनेसे जान पड़ता है कि इस संसारमें सुख अल्पमात्र भी नहीं है और दुःख ही दुःख भरा हुआ है । दुःख दूर करने का उपाय करना इस जीवकी प्रथम अभिलाषा तथा प्रेरणा है । शास्त्र भ्यास करनेसे संसारकी सब गतियोंमें कितने तथा किस प्रकार के दुःख हैं यह तूने देखा है अब उनके परिणामस्वरूप यदि तुझे सुख प्राप्त करने की अभिलाषा हो तो ऐसा कार्य कर कि जिससे तुझे चतुर्गतिके कष्ट न