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________________ २७० ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ सप्तम भी माया ! तूं जैन हो कि हिन्दु हो, चाहे कोई भी क्यों न हो ? तूं साधु हो, कि संन्यासी हो, कि पादरी हो, परन्तु तेरे जीवनकी और दृष्टि डाल ! तूं दिखाव कितना करता है ? लोकरंजन करने निमित्त, वाहवाह पुकारे जाने निमित्त कितना करता है ? उसकी मोर दृष्टि डाल ! विचार ! बहुत निरर्थक चला जाता है; तूं समझता नहीं है, और समझने का यत्न भी नहीं करता है जिससे बहुत भूल होती है। - लोभ-इसको शास्त्रकार आकाशकी उपमा देते हैं। जिस प्रकार आकाशका अन्त नहीं आ सकता इसीप्रकार यह भी सिमा रहित है। इसका विवेचन १२ वीं गाथामें करदिया गया है। शास्त्रकार कहते हैं कि " सर्वगुणविनाशनं लोभात् " लोभले सब गुणोंका नाश हो जाता है। पैसोंको इसीलिये ग्यारवां प्राण कहते हैं । यह दश प्राणोंको भूला देता है, अपने गुणोंकी प्रशंसा करता है, और अनेक प्रकारके नाच नचाता है । सम्पूर्ण संसारको अंगुली पर नचानेवाली भाशा-तृष्णा अनेक रूपमें काम करती है । राज्यके, धनके अथवा पुत्रके लोभसे अनेकों अकार्य किये जाते हैं । इसने अरबों रूपयोंके स्वामी मम्मण सेठको अंधेरी रात्रिमें भरपूर बहनेवाली नदीमें तैराया लकड़े खिचवाये, और इसीने कोणिकका अपनी माके बाप चेड़ा महाराजाके साथ भीषण युद्ध कराया था। इसीने धवल सेठको सातमी नारकीमें भेजा और इसीने नैपोलियनको सेंटहेलीनामें बन्दी बनाया था । इसीने अनेकोंको भटकाया, दौड़ाया और मिट्टीमें मिलाया । १ हेमचन्द्र महाराज इसे ' समुद्र ' की उपमा देते हैं। यह मर्यादावाला दृष्टिगोचर होता है, परन्तु जब उठता है तब बहुत बड़ी हद तक पहुँच जाता है, इसका अन्त नहीं होता आदि रूपक घटाना चाहिये । .
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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