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अधिकार ]
कषायत्याग इसके लिये उसके मूलको ही जला देना चाहिये । (वृक्षको जला देना पाप है इससे न डरे । इस कषायवृक्षको तो अनन्त दयाके स्थान परमात्मा तीर्थकरोंने भी मूलसे उखेड़ कर फेंक दिया था)।
प्रत्येक भव्यात्माओंके घर में यह वाक्य लिख देना चाहिये कि " मूलं हि संसारतरोः कषायाः ” इस वाक्यके भलिभाँति समझ लेने पर भविष्यकी स्थितिका आधार है।
कषायके सहचारी विषयोंका त्याग. समीक्ष्य तिर्यङ्नरकादिवेदनाः,
श्रुतेक्षणैर्धर्मदुरापतां तथा। • प्रमोदसे यद्विषयः सकौतुकैस्
ततस्तवात्मन् ! विफलैव चेतना ॥ १९॥
" शास्त्ररूप नैत्रोंसे तिर्यच, नारकी प्रादिकी वेदनाओंको जान कर, तथा उसीप्रकार धर्मप्राप्तिकी कठिनताको भी जान कर, यदि तूं कुतूहलवाले विषयोंमें आनन्द मानेगा तो हे चेतन ! तेरा चैतनपन तद्दन व्यर्थ है।" वंशस्थ.
विवेचन-विषय तथा प्रमादमें परस्पर साधर्म्य है और विषय तथा कषाय सहचारी हैं इसलिये कषायद्वार में विषयोंका उपदेश किया जाता है । देवताओंको च्यवन समय अनन्त दु:ख होता है, मनुष्यभवमें प्रवृत्ति, वियोग, व्याधि, जरा, मृत्यु भादि दुःख हैं, तिथंचको परस्वाधीनवृत्तिका दुःख है और नारकी तो दुःखमय ही है । यह सब बातें शास्त्र में पढ़ी जाती हैं इसलिये शास्त्ररूप ज्ञानचक्षुसे तुमने ये सब देखी हैं और तूं यह भी
१ स्कौतुकः इति पाठोऽपि क्वचिदृश्यते.
२ मनमें जब कोई विषय बराबर प्रगट होता है तब उसकाज्ञानचक्षुओंके सामने सष्ट दर्शन होता है। नहीं दखी हुई वस्तुओं का वर्णन सुन