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२२४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[सप्तम बातोंमे चलते प्रवाहके विचारोंके वशीभूत न होकर प्रत्येक बाबतका प्रथक्करण करते सिखना ही विशेष लाभदायक है।
संक्षेपसे क्रोधनिग्रह. पराभिभूत्याल्पिकयापिकुप्य
स्यघेरपीमा प्रतिकर्तुमिच्छन्। न वेत्सि तिर्यङ्नरकादिकेषु,
तास्तैरनन्तास्त्वतुला भवित्रीः ॥९॥
" साधारण पराभवसे भी तूं कोप करता है और कितने ही पापकर्मोसे उसका वैर लेनेकी अभिलाषा करता है, परन्तु नारकी, तियेच आदि गतियोंमें जो बेहद अतुल परकृत दुःख होनेवाले हैं उनको तो तूं न तो देखता ही है, न विचार ही करता है।"
उपजाति. विवेचन-यह जीव अल्पमात्र पराभवसे क्रोध करने लगता है और उसे शब्दोंसे, हस्तसे अथवा हथियारसे मारनेको उद्यत हो जाता है अथवा हृदयमें द्वेषभावना रखकर वैरको खोजता रहता है, कोई बहाना या छिद्र ढूंढ़ता रहता है और सब दिन इसी उधेड़बुनमें लगा रहता है। इस मनोविकारके प्रभावमें आये हुए प्राणीको कृत्याकृत्यके विवेक तथा भविष्यका विचार नहीं रहता है । वह तो अपने मस्त मानसिक विचारों में मग्न होकर निरंकुश वृत्तियों का प्रयोग करता है, परन्तु बेचारे जीवको यह भान नहीं होती कि ऐसा करनेसे पहले बतायेअनुसार इस भवमें भी दुःख प्राप्त होता है और इसके भी उपरान्त पर. भवमें भी अनेकों कष्ट उठाने पड़ते हैं। मानसिक विकारों जैसे कि क्रोध, मान, माया, लोभ आदिके परिणामस्वरूप अनेक कठिन दुःख उठाने पड़ते हैं। जबकि अल्पकालके लिये किये हुए भोजनके अन्तराय जैसे स्थूल पापके परिणामस्वरूप श्री प्रादि