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________________ २१४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ सप्तम संसारवृद्धि होती है। इन दो श्लोकोंमें कहते हैं कि संसारी जीवोंको मानके प्रसंग प्राप्त होने पर केवल दो मार्ग हैं-या तो मान करके संसारमें डुबना अथवा मानको दबाकर परभवमें उच्च गति प्राप्त करना। इस श्लोकके प्रांत भागमें जो मान और तपका सम्बन्ध बताया है वह बहुत रहस्यपूर्ण है । दूसरोंसे पराभव होने पर सामान्य व्यक्ति अपने मनके अंकुशकों खो देता है जिससे बना बनाया सब खेल बिगड़ जाता है । अहंकार अथवा क्रोध करनेसे अभ्यन्तर तपका नाश हो जाता है । विनय, वैयावञ्च तथा सद्ध्यान नहीं रहता है, नहीं पाता है तथा नष्ट हो जाता है जिससे कर्मकी निर्जरा नहीं होती है; प्रायः मोक्ष वो दूर ही चला जाता है। ऐसी दशा है, इसलिये हे विद्वान् ! तूं लाभ तथा हानिका पहले विचार करके फिर अहंकार करना । संसारके प्रत्येक कार्यमें विचार करनेकी आवश्यकता है। इसलिये प्रन्थकर्ता भी इसपर बारम्बार जोर दे दे कर कहते हैं कि तूं जैसी तेरी इच्छा हो वैसा करना परन्तु करनेसे पहले एक बार अवश्य विचार करलेना। किसी भी पवनके झोकेसे तेरा आत्मयान किसी भी दिशामें जा सकता है, किन्तु ऐसा करनेसे वह तेरे निश्चित बन्दरमें नहीं पहुंच सकता, अतः इस आत्मयानको निश्चित बन्दरमें पहुंचाने निमित्त उपयोगी पवनके साथ उचित दिशा में खेंचकर लेजा। क्रोधत्याग करनेवाले योगीको मोक्षप्राप्ति. श्रुत्वा क्रोशान् यो मुदा पूरितःस्यात् , लोष्टाद्यैर्यश्चाहतो रोमहर्षी । यः प्राणान्तेऽप्यन्यदोषं न, पश्यत्येष श्रेयो दाग लभेतैव योगी ॥४॥ १ लोभ इति वा पाठः ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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