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अध्यात्मकल्पद्रुम [ सप्तम ददतु ददतु गालीलिमन्तो भवन्तो, वयमिह तदभावागालिदानेऽसमर्थाः। जगतिविदितमेतद्दीयते विद्यमानं,
न तु शशंकंविषाणं कोऽपि कस्मै ददाति ॥
" तुम्हारी जितनी अभिलाषा हो उतनी तुम गालिये दो, क्योंकि तुम " गालीवाले " हो । हमारे पास तो गालिये है भी नहीं इसलिये हम दे भी नहीं सकते हैं । दुनियाँमें जिसके पास जो वस्तु होती है वह ही वह दुसरेको दे सकता है। देखों, खरगोशके शृंग जब नहीं होते तो वह उनकों दूसरोंको किस प्रकार दे सकता है अर्थात् वह किसीको कुछ नहीं दे सकता है।"
ऊपर लिखेअनुसार प्रसंगोके आनेपर जो यदि योग्य समता रखी जाती है तो बहुत लाभ होता है और यदि क्रोध किया जाता है तो अत्यन्त कठिनतासे मिलनेवाला पुण्यरूप धन भी यह प्राणी हार जाता है । जिस धनका अन्त नहीं है ऐसा करोड़ों वर्षोंका एकत्रित ज्ञानादि आत्मगुणरूप धन हार जाता है इसलिये क्रोधपर जय प्राप्त करना लाभका रक्षण है, तथैव उसकी प्राप्ति करने जैसा है।
इसके दृष्टान्त शास्त्रमें विद्यमान हैं। शिष्यपर क्रोध करनेसे गुरु मरकर चण्डकौशिक नाग हुए। महातीव्र उपद्रव प्राप्त होनेपर भी गजसुकुमालने क्रोध नहीं किया और शान्त रहे तो उसके प्रतापसे उन्होंने शीघ्र ही मोक्षधनको प्राप्त किया । उसीप्रकार मेतार्यमुनिने भी अंतकृत् केवली होकर मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त किया। भासन्नोपकारी वीरपरमात्माके क्रोधकी जय की मोर जो विचार करें तो महान् आश्चर्य होता है। उनको हुए हुए उपसर्गोके वर्णनको पढ़नेसे तो हृदय कंपायमान होजाता है,