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________________ १८५ संसारमें शीत, धूप, सुधा आदि सब सहन कर लेते हैं, किन्तु यदि एक उपवास करनेकी बारी आती है तो शरीर अशक्त हो जाता है। ऐसे व्यवहारवाले प्राणियोंको मरण समय किस प्रकारका आनन्द हो सकता है ? जिसप्रकार शरीर पर बहुत ममता नहीं रखना चाहिये उसीप्रकार इसकी सर्वदा उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिये, कारण कि शरीरकी सहायता से ही संसारसमुद्र तैरा आ सकता है । शरीरको अपनी प्रकृतिके अनुकूल साधारण सात्त्विक खुराक देना चाहिये और कुदरतके नियमानुसार शरीरको जरा बहुत परिश्रमी भी बनाना चाहिये । नियमित टेव और योग्य व्यायामसे व्याधिये कम होती हैं । शरीरको तहन नाजुक तबियतवाला बनानेका प्रयल न करें । उपरोक्त श्लोकमें कहेनुसार शरीरको भाड़ा देकर उसके बदलेमें आत्महित कर लेवें । श्रीशांतसुधारसके छठ्ठी भावनाके अन्तमें लिखते हैं कि-" केवल मलरूप पुद्गलोंके समूह और पवित्र भोजनको अपवित्र बनानेवाले इस शरीरमें एक मात्र मोक्षसाधन करनेका सामर्थ्य है, इसीको अत्यन्त साररूप समझो ।” शरीरकी सहायतासे आत्महित करनेका लक्ष्य रखना, शरीरपर मोह कम रखना और शरीरप्राप्तिका बराबर लाभ उठाना, यह बुद्धिमान पुरुषका कर्त्तव्य है । इसके विपरित इस अधिकारके पांचवे श्लोकके विवेचनमें बता. येनुसार यह जीव मस्त होकर शरीरसे यथायोग्य लाभ नहीं उठाता है । जब व्यौपारी एक पुरुषको नोकर रखता है तो समय समय पर विचार करता है कि जिनना उसको वेतन दिया जाता है उतना वह काम करता है कि नहीं करता और यदि वह नोकरी बराबर नहीं करता हो तो वेतन कम कर दिया जाता २४
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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