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इसप्रकार अपने राजाका हुक्म पाकर शरीररूप सेवक तुरन्त ही उनको अमल में लायां । दारुके ममें मस्त हो जाने पर जीवको कृत्याकृत्यका भी विवेक नहीं रहा और जब शरीरकों यह पूर्णतया विश्वास होगया कि अब यह जीव मोक्षमें नहीं जा सकेगा परन्तु नरकमें ही जायगा तब यह समझ कर कि अब मेरा कार्य पूर्ण हो गया है वह इस जीवको छोड़कर चल देनेका विचार करने लगा । इस समयमें अकस्मात् गुरुमहाराज ( मुनिसुन्दरसूरि) इस जीवको मिल गये। बंदीखानेकी असह्य वेदनाको सहते हुए इस जीवको देखकर उनका हृदय दयासे भर आया, इसलिये उन्होंने इस जीवको कैदखानेका स्वरूप समझाया और फिर कहा कि"हे भाई ! इस बन्दीखानेसे अब भी निकल भगनेका प्रयत्न कर । यह शरीर थोड़ा सा लोभी है, अतः ऐसा उपाय कर कि उसको थोड़ा थोड़ा खिलाकर इसीकी सहायतासे मोक्षका साधन तैयार कर, पांचों इन्द्रियोंपर संयम रख और पांचों प्रमादरूप दारु( मद्य )का कभी भूलकर भी सेवन न कर।"
मुनिसुन्दरसूरि महाराजके इस उपदेश पर जीव विचार करता है। उपदेशानुसार अमल करनेकी बहुत आवश्यक्ता है, परन्तु वास्तविक बात तो यह है कि यह जीव जब दूसरों की पंचायत करनी होती है तब तो बहुत बढ़ बढ़ कर बातें बनाने लग जाता है, लेकिन उसको अपने खुदके शरीरका बिलकुल भी भान नहीं है । यह जब रोगग्रस्त होता है तो वैद्यके कहने पर कठिनसे कठिन व्रत लेनेको तैयार होता है, लेकिन जब रोगरहित हो जाता है तो फिर वही रफतार बेढंगी जो पहले थी सो अब भी है अर्थात सम्पूर्ण दिवस बन्दको दारु ही