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________________ .. १७५ . विवेचन:-अब तक परलोकके दुःखकी शंकासे विशेष पुण्य संचय करनेका उपदेश किया गया है। अब इस श्लोकमें बतलाते हैं कि इस लोकमें भी तुं दुःख क्यो उठाता है ? शरीरसे तुझे किसी भी प्रकारका सुख नहीं मिल सकता, अपितु तुझे जो जो दुःख उठाने पड़े है वे सब शरीर सम्बन्ध ही के कारण उठाने पड़े है, इसलिये यदि तूं शरीर सम्बन्ध छोड़ दे तो इसमें कुछ भी शंका नहीं है कि तूं मोक्षकी प्राप्ति न कर सके अर्थात् अवश्यमेव कर सकेगा। जिस शरीरकी तुं अभक्ष्यसे रक्षा करता हैं वह तो दोनों तरहसे पीटा जाता है। इस भवमें भी बड़ी उमर हो जाने पर दुःख पाता है । कदाच युवावस्थामें माल मशाले दो एक वर्ष नुकशान न बतावे कुछ अधिक उमर होने पर वे उनकी असर बताये विना नहीं रहते है । शरीर थोड़ेसे समय पश्चात् जर्जरीभूत होजाता है, और परलोकमें इसकी पुण्य बिना क्या दशा होती है, यह स्पष्टतया प्रसिद्ध ही है । दोनों श्लोकोंका यह उद्देश्य है कि हे भाइयों ! यदि तुम्हारी परलोकमें सुख्ख पानेकी अभिलाषा हो और इस भवमें भी शरीरको सामान्य रीतिसे स्वस्थ रखना हो तो इसको किसी भी प्रकारसे नाजुक बनाने की चेष्टा न करें। धर्मसाधनके लिये शरीर उपयोगी है इसलिये इसका घात करना भी अनुचित है, लेकिन विचारपूर्वक माध्यस्थ मार्गका अवलम्बन करना अति श्रेष्ट है । । अनि जब लोहेके सम्बन्ध में आती है तो उसपर बड़े बड़े घन पड़ते हैं, किन्तु जब वह लोहमेंसे निकल जाती है तो सब कष्ट दूर हो जाते हैं । आत्मा भी भग्निके समान है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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