________________
वह कार्य पूरा हो जायगा, किन्तु पैसोंके लिये तो यह नियम भी नहीं लगता है । हजारके मिलने पर लाखकी और लाखके मिलने पर करोड़की उतरोत्तर इच्छा बढ़ती ही जाती है। बढ़ती इच्छाके अनुसार कार्यधुरामें जुड़ कर सम्पूर्ण जीवन पूरा कर देते हैं, किन्तु उनके पैसे एकत्र करनेका काम फिर भी पूरा नहीं होता है। किसी भी कार्यके करनेका अमुक हेतु और अमुक साध्य होता है । बिना प्रयोजन तथा बिना साध्यके तो साधारण बुद्धिवाला पुरुष भी प्रवृत्ति नहीं करता है, तो फिर धनप्राप्तिका हेतु तथा साध्य क्या हैं ? जरा विचार किजिये। अनादि पद्धतिसे पागल न हों । केवल एकमात्र धनकी आभिलाषासे ही धनकी प्राप्तिके लिये उद्योग न करो, किन्तु जरा आगे पिछे दृष्टि डालो। तुम समझदार पुरुष हो, तुम्हारा अनुकरण अनेकों पुरुष करते होंगे, अतः जब २ प्रवृत्ति करो तब २ उसके हेतु तथा साध्यको ध्यानमें रखकर करो। इस दृष्टिसे विचार करने पर मालूम होगा कि कार्यसिद्धिके ऊपर बताये दोनों नियम द्रव्यप्राप्तिके प्रयास में व्यर्थ सिद्ध होते हैं।
यह हम देख चुके है कि धनप्रवृत्ति निर्हेतुक है, अतः जो इसकी इच्छा न रखते हों वे ही उत्कृष्ट प्रशंसाके पात्र हैं। जो श्रावक अवस्थामें हैं, उनको सर्वत्यागकी अभिलाषा तथा वर्तमान दशामें संतोष रखना चाहिये । अपनी स्थितिके सुधा. रनेकी तीव्र अभिलाषा रखना उचित हैं, किन्तु उसके ठिक बनाते समय दुर्ध्यान न होने पावे । वर्तमान स्थितिमें भानन्द मानना और विशेषतया कर्मके सिद्धान्तोंके वशीभूत न हो कर पुरुषार्थ करना उचित है । इसका अर्थ कुछ और न समझले,