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धवलशेठ के चरित्रों का विचार करना चाहिये जिस से सुखका. सच्चा तत्त्व मालूम हो जायगा ।
धर्म के लिये धन एकत्र करना योग्य है ? द्रव्यस्तवात्मा धनसाधनो न,
धर्मोऽपि सारम्भतयातिशुद्धः । निःसंगतात्मा त्वतिशुद्धियोगान् , ,
मुक्तिश्रियं यच्छति तद्भवेऽपि ॥ ४ ॥ . " धन के साधन से द्रव्यस्तवस्वरूपवाले धर्म की सिद्धि हो सकती है, परन्तु वह प्रारम्भ युक्त होने से अति शुद्ध नहीं है; अत: नि:संगतास्वरूपवाला धर्म ही अति शुद्ध है और उससे ही उसी भव में भी मोक्षलक्ष्मी प्राप्त हो सकती है।"
__ इन्द्रवज्र.
विवेचन:-अनेक प्रकार की पूजा, बिंबप्रतिष्ठा, स्वामीवात्सल्य, मन्दिर बनाना, उपाश्रय बनाना आदि द्रव्यस्तव कहलाते हैं । द्रव्य के मदद से ये बातें सुगमतापूर्वक हो सकती हैं। पुण्यशाली प्राप्त हुई लक्ष्मी को धर्ममार्ग में व्यय करके महापुण्य का उपार्जन करते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इसप्रकार के धर्म में भी प्रारम्भ होता है, कारण कि षटकाय जीव का मर्दन होता है, अतः इसप्रकार का धर्म अति शुद्ध नहीं हैं। ध्यान रक्खे कि यह अति शुद्ध नहीं, शुद्ध तो है ही, लेकिन ऐसे धर्मको करने निमित्त द्रव्य उपार्जन करना युक्त नहीं है। हरिभद्रसूरि महाराजने भी अष्टकजी में कहा है कि: